स्वास्तिक

स्वास्तिक सदा से ही शुभता का प्रतीक माना जाता रहा है। हिंदू धर्म में स्वास्तिक का अर्थ है शुभ होना। “स्व” का अर्थ है शुभ व “अस” का अर्थ है होना अर्थात शुभ होना। स्वास्तिक केवल एक चिह्न ही नहीं है वरन हमारी शक्ति और विश्वास का नाम है। यह हमारे मांगल्य का प्रतीक है।

स्वास्तिक दो प्रकार के माने गए हैं।

  1. सकारात्मक
  2. नकारात्मक
  1. सकारात्मक स्वास्तिक: हमारे पूजा विधान में हर मांगलिक कार्य में सर्वप्रथम लगाए जाते हैं। यह हल्दी, रोली तथा सिंदूर से बनाए जाते हैं।
  2. नकारात्मक स्वास्तिक: यह काले रंग से बनाए जाते हैं। यह नकारात्मक शक्तियों को रोकने के लिए बनाए जाते हैं। इसको कोयले या काले रंग से बनाया जाता है।

इसके अतिरिक्त इसका एक और प्रकार है। इसे उल्टा सतिया (वामवर्तीय) स्वास्तिक कहते हैं। यह किसी मानता को मानकर बनाया जाता है और कार्य पूरा होने पर सीधा कर दिया जाता है। यह भी हमारे विश्वास का ही प्रतीक है।

स्वास्तिक बनाते समय इस प्रकार का चिन्ह बनाते हैं जो चारों दिशाओं का प्रतीक माना जाता है। जिस प्रकार ओम () शिव जी का प्रतीक है उसी प्रकार स्वास्तिक श्री गणेश जी का प्रतीक है और श्री गणेश शुभता के प्रतीक हैं।

स्वास्तिक के बनते ही ऐसा विश्वास कहिए या मिथक, मन में यह विश्वास हो जाता है कि अब चारों ओर मंगल ही होगा। घर में गणेश जी की कृपा सदैव बरसेगी तथा धन-धान्य की कमी नहीं होगी।
वास्तु शास्त्र के हिसाब से भी स्वास्तिक का अपना अलग ही अस्तित्व है। घर के मुख्य द्वार पर दोनों ओर 9 इंच का लंबा और चौड़ा सिंदूर या रोली से बना स्वास्तिक घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक होता है।

घर की उत्तर या पूर्व दिशा में बने स्वास्तिक का अपना एक विशिष्ट स्थान है। उस घर में कभी भी नकारात्मक शक्तियां प्रवेश नहीं कर सकतीं तथा घर में चारों ओर शुभता का ही वास होता है।

स्वास्तिक बहुत ही स्पष्ट 90 डिग्री का होना चाहिए।

जैसा की चित्र में हर कोण स्पष्ट होना चाहिए तभी उसका पूर्ण लाभ प्राप्त हो सकेगा।

स्वास्तिक का इतिहास लगभग 15000 वर्ष पुराना है। सिंधु घाटी की सभ्यता में कुछ चिन्ह स्वास्तिक के रूप में पाए गए हैं।मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी इस चिन्ह के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जैन धर्म, बौद्ध धर्म में भी इसे मान्यता प्राप्त हुई। बुद्द भगवान के हृदय, पैर तथा हथेली पर भी या चिन्ह अंकित है। अशोक के शिलालेखों, रामायण, पुराण, महाभारत आदि में भी स्वास्तिक का उल्लेख मिलता है। एक अध्ययन के अनुसार जर्मनी में भी स्वास्तिक का उपयोग किया गया है। 1935 में जर्मनी के नाजियों ने स्वास्तिक का प्रयोग किया था जिसका विरोध किया गया और इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

15000 वर्ष पुराना स्वास्तिक का इतिहास है। स्वास्तिक को सौभाग्य से जोड़कर माना जाता है। यूक्रेन के नेशनल म्यूजियम में कई तरह के स्वास्तिक चिन्ह देखे जा सकते हैं। आयरलैंड में कई स्थानों व गुफाओं में इसके चिन्ह देखे जा सकते हैं।

एडोल्फ हिटलर ने इसे अपना राष्ट्रीय निशान बनाया था। अमेरिका ने अपनी मैगजीन का नाम स्वास्तिक रखा। नेपाल में हेरंब, मिस्र में एक्टोन तथा वर्मा में पियेन्नों के नाम से पूजा जाता है। संक्षेप में सभी धर्मों तथा देशों में इसका महत्व परिलक्षित होता है। किंतु हिंदू धर्म ने इसको सर्वाधिक मान्यता प्रदान की है। इसकी रचना इस प्रकार की है कि वह एक घड़ी की तरह चलती है जो सूर्य की ओर इंगित करती है।

यदि स्वास्तिक के चारों ओर गोला खींच दिया जाए तो वह सूर्य का प्रतीक हो जाता है। उसकी चारों भुजाएं चारों देवो ब्रह्मा, विष्णु, महेश और गणेश का प्रतीक हैं। यह हमारे पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक हैं। यह चारों आश्रम तथा ब्रह्मा के चार मुख का प्रतीक हैं।

यदि यह कहा जाए कि स्वास्तिक के बिना हिंदू धर्म का कोई अस्तित्व नहीं, यह हिंदू धर्म की आत्मा तथा उसका मेरुदंड है तो इसमें कोई संदेह नहीं।

आशा शरद चतुर्वेदी, लखनऊ

स्वास्तिक: शुभकर्ता, मंगलप्रतीक

स्वास्तिक का महत्व-

स्वास्तिक का चिन्ह हम अपने जीवन में बचपन से देखते आ रहे हैं। किसी भी शुभ कार्य में इसे अवश्य बनाया जाता है। हिंदू धर्म के अलावा अन्य धर्मों में भी इसका महत्व है तथा प्रयोग होता है। प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल का प्रतीक स्वास्तिक का चिन्ह ही माना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि शुभ कार्य प्रारंभ करने से पहले इसको बनाने से कार्य मंगलकारी तथा संपूर्ण होता है। स्वास्तिक का चिन्ह सौभाग्य का प्रतीक है तथा वैदिक सभ्यता का एक महत्वपूर्ण पौराणिक चिन्ह है।

स्वास्तिक का अर्थ-

  1. हिंदू धर्म में इसका अर्थ है अच्छा (सु अस्ति) अर्थात जीवन के लिए मंगल कामना।
  2. यह उर्वरता से भी जुड़ा है।
  3. स्वास्तिक=सु+अस+क से बना है। सु का अर्थ अच्छा, अस का अर्थ सत्ता तथा का अर्थ कर्ता है।
  4. स्वास्तिक की रेखाएं प्रकाश किरणों एवं चार मुख्य दिशाओं को सूचित करती हैं। बाहरी रेखाएं समय के लय को दर्शाती हुई घड़ी की सुई की दिशा में मुड़ी रहती हैं।
  5. स्वास्तिक के मध्य में 4 बिंदु या बिंदी लगाई जाती हैं जो 4 युगों की प्रतीक हैं। स्वास्तिक प्रायः लाल रंग से बनाया जाता है।
  6. नक्षत्र शास्त्र के अनुसार यह चित्रा .पुष्पा, रेवती तथा बृहस्पति की स्थिति से इसका तथा इसके आकार का निर्माण हुआ है।

स्वास्तिक का उपयोग-

  1. स्वास्तिक में सकारात्मक ऊर्जा होने से वास्तु दोष समाप्त हो जाते हैं।
  2. स्वास्तिक को सतिया भी कहते हैं। सतिया की रचना हल्दी, कुमकुम और सिंदूर से की जाती है।
  3. इसे भगवान गणेश का प्रतीक माना जाता है। किसी भी पूजन कार्य शुरू करने से पहले यह स्वास्तिक का चिन्ह जरूरी होता है।

हमारी हिंदू शास्त्रों के अनुसार भगवान गणेश प्रथम पूज्य हैं और स्वास्तिक या सतिया का पूजन का अर्थ है गणेश जी से विनती करना हमारा कार्य सफल एवं मंगलकारीपरिणाम दायक हो।

  1. स्वास्तिक धनात्मक ऊर्जा का प्रतीक है। इसके बनाने से आसपास की नकारात्मक उर्जा दूर हो जाती है। साथ ही यह तनाव, रोग, कलेश व निर्धनता व शत्रुता से मुक्ति दिलाता है।
  2. इसका उपयोग हमें रसोईघर, तिजोरी, पूजा-घर व प्रवेश द्वार में अवश्य करना चाहिए।
  3. स्वास्तिक की रचना सभी दिशाओं के महत्व को दर्शाती है। इसलिए इसे दिशा का प्रतीक भी माना जाता है।
  4. सतिया या स्वास्तिक की चार रेखाएं ऋग, यजु:, साम और अथर्व चारों वेद और चारों भोग धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के प्रतीक हैं।
  5. मनुष्य के जीवन चक्र तथा चारों आश्रमों का प्रतीक भी स्वास्तिक माना गया है।
  6. यह चारों युगों का द्योतक भी है।
  7. विशेष बात यह है यह गणित के धन+ चिन्ह को दर्शाती है। इस तरह योग और जोड़ का प्रतीक भी है।
  8. प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनियों ने कुछ मंगलकारी भावों को प्रकट करने हेतु चिन्ह बनाए, उनमें यह भी एक है।

स्वास्तिक: एक प्राचीनतम चिन्ह-


स्वास्तिक चिन्ह सर्वाधिक प्राचीनतम है। सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई में प्राप्त मुद्रा एवं बर्तनों में भी यह चिन्ह खुदा हुआ है। उदयगिरि और खंडगिरि की गुफाओं में भी स्वास्तिक के चिन्ह मिले हैं। सिंधु घाटी के अवशेष जो प्राप्त हुए जिन पर स्वास्तिक अंकित है।

विष्णु पुराण में स्वास्तिक को भगवान विष्णु का प्रतीक बताया है। मोहनजोदड़ो, एवं हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिलालेख, रामायण, हरिवंश पुराण, महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता है।

स्वास्तिक के लाभ-

  1. स्वास्तिक हर दिशा से देखने पर समान दिखाई देता है इसलिए घर के वास्तु दोष दूर करता है।
  2. जिस देवता को प्रसन्न करना हो, स्वास्तिक बनाकर उस पर उस देवता की मूर्ति रखकर पूजा करें।
  3. धन लाभ के लिए दहलीज के दोनों ओर स्वास्तिक बनाकर पूजा करें।
  4. स्वास्तिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। बुरे सपने आते हो, बेचैनी हो तो अपनी तर्जनी में स्वास्तिक बनाकर सोएं, लाभ होगा।
  5. मनोरथ पूर्ण करने वाला। यदि अपना मनोरथ पूर्ण करना हो तो मंदिर की दीवार पर गोबर से उल्टा स्वास्तिक बना दें। कार्य पूरा होने पर स्वास्तिक को सीधा कर दें।

कैसे करें स्वास्तिक का निर्माण?

स्वास्तिक बनाने के लिए धन + चिन्ह बना कर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी और खींचने से स्वास्तिक बन जाता है।

रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारंभ करना चाहिए, इसमें दक्षिण वर्तो गति होती है।

स्वास्तिक अशुद्ध स्थानों पर कभी ना बनाएं। ऐसा करने से करने वाले की बुद्धि, विवेक समाप्त हो जाता है।

स्वास्तिक को बीच से ना काटे एसा कुछ धर्म शास्त्रों का कहना है। ऐसा करने से पूर्ण लाभ नहीं मिलता स्वास्तिक बिना काटे बनाने से लाभकारी होगा।

स्वास्तिक के प्रकार-


स्वास्तिक कई प्रकार के बनाए जाते हैं।

  1. केवल रेखाओं द्वारा।
  2. घुंघरू वाला स्वास्तिक- हाथों की मुट्ठी में आटा लेकर ठोकने से अंगुली के खाली स्थान से जो आटा गिरता है वह लहरिया की आकृति बनाता है। इसी लहरिए के दोनों तरफ समांतर रेखाएं बनाई जाती हैं।
  3. स्वास्तिक नाग- स्वास्तिक पर नाग देवता की आकृति देकर बनाया जाता है। बच्चे के जन्म पर दरवाजे के दोनों ओर की दीवारों पर स्वास्तिक नाग बनाए जाते हैं।
  4. पाँच स्वास्तिक का सुत का सतिया- यह कार्तिक मास में तुलसी जी के घरों के समक्ष बनाया जाता है। यह रचना विशिष्ट है। पहले 3,5,7, 9, 11 सतिए बनाये जाते हैं, फिर इन सतियों को जोड़ दिया जाता है।
  5. फूल स्वास्तिक- यह हल्दी और चावल पीसकर बनाया जाता है।
  6. लाल रंग का स्वास्तिक- यह खुशहाली का प्रतीक होता है।
  7. काला स्वास्तिक- कोयले से बना काला स्वास्तिक बुरी नजर और बुरे समय को दूर करने के लिए उपयोगी है। काला स्वास्तिक अशुभ होता है और मृत्यु के समय बनाया जाता है।

लेखिका: श्रीमती उषा भरत चतुर्वेदी, भोपाल

एकादशी

🚩एकादशी व्रत का महत्व🚩

हमारी भारतीय संस्कृति में हिंदू धर्म में एकादशी या ग्यारस एक महत्वपूर्ण तिथि है। इस व्रत की की हमारे हिंदू धर्म में बड़ी महत्ता है। यही कारण है हिंदू धर्मावलम्बी बड़ी श्रद्धा और निष्ठा के साथ एकादशी का व्रत करते हैं।

एकादशी देवी थीं जो भगवान विष्णु के द्वारा उत्पन्न की गई थीं। भगवान विष्णु के प्रकट करने के कारण ही एकादशी के व्रत में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है।

🚩एकादशी व्रत क्या है🚩

एक ही दशा में रहते हुए अपने आराध्य देव का पूजन एवं वंदन करने की प्रेरणा देने वाला व्रत एकादशी व्रत कहलाता है। पद्म पुराण में भी एकादशी महा पुण्य प्रदान करने वाली उल्लेखित है।

कहा जाता है कि जो व्यक्ति इस व्रत को करता है उसके पितृ तथा पूर्वज बुरी योनी को त्याग स्वर्ग लोक चले जाते हैं । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि हिंदू पंचांग की 11वीं तिथि को एकादशी कहते हैं। एकादशी संस्कृत भाषा से लिया शब्द है। यह माह में 2 बार आती है, पूर्णिमा के बाद तथा अमावस्या के बाद। इस तरह से एकादशी साल में 24 होती हैं लेकिन अधिक मास को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती है।

🚩एकादशी का महत्व🚩

पुराणों के अनुसार एकादशी को हरी दिन और हरी बासर भी कहते हैं।यह व्रत वैष्णव तथा गैर-वैष्णव भी करते हैं ऐसा कहा जाता है। एकादशी का व्रत हवन, यज्ञ, वैदिक, कर्मकांड आदि से अधिक फल देता है।स्कंद पुराण में भी इसके महत्व का वर्णन है।



🚩नियम🚩

एकादशी व्रत करने के नियम बहुत सख्त होते हैं। व्रत. करने वाले को एकादशी तिथि से पहले सूर्यअस्त से लेकर एकादशी के अगले सूर्योदय तक उपवास करना पड़ता है। अर्थात दशमी के दिन सूर्य अस्त के बाद से व्रत शुरू हो जाता है। दशमी के दिन भी कुछ नियम पालन करने पड़ते हैं। उदाहरण स्वरूप मांसाहार नहीं किया जाता, प्याज व मसूर की दाल व शहद का सेवन भी नहीं किया जाता।
एकादशी के दिन सुबह दातून का इस्तेमाल ना करें। इसके स्थान पर नींबू, जामुन या आम के पत्ते चबाकर उंगली से दांत साफ करें। इस दिन पत्ते तोड़ना वर्जित है व गिरे पत्ते प्रयोग में लाए जाते हैं। स्नानादि के पश्चात मंदिर जाकर गीता का पाठ करें तथा ओम भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप करें तथा यथाशक्ति दान करें।
दूसरे दिन अर्थात द्वादशी के दिन आम दिनों की तरह कार्य करें। सुबह उठकर भगवान विष्णु की पूजा करें तथा उसके पश्चात सामान्य भोजन लेकर व्रत समाप्त करें। इस बात का ध्यान रखें कि त्रयोदशी लगने से पहले ही व्रत का पारण कर लें।

🚩भोजन🚩

एकादशी के दिन व्रती ताजे फल, चीनी, कूटू, नारियल, जैतून, दूध, अदरक, काली-मिर्च, सेंधा-नमक, आलू, साबूदाना और शकरकंद का प्रयोग कर सकते हैं।

🚩एकादशी को वर्जित कार्य🚩

  1. वृक्ष के पत्ते ना तोड़े।
  2. बाल नहीं कटवाए।
  3. कम बोले, यदि संभव हो तो मौन करें।
  4. चावल का सेवन वर्जित है।
  5. किसी का दिया हुआ अन्न न खाएं।
  6. फलाहार में गोभी, शलजम, पालक का सेवन न करें।
  7. ब्रह्मचर्य का पालन करें।

🚩एकादशियों के नाम🚩

वर्ष भर में होने वाली 24 एकादशियों को हिंदू धर्म में अलग-अलग नाम से जाना जाता है। तथा इनके अलग-अलग महत्व भी हैं। पूजन विधि में भी थोड़ा सा फर्क होता है।

1- पुत्रदा एकादशी-

पुत्रदा एकादशी को भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है। इस दिन केसर, केला तथा हल्दी का दान दिया जाता है। चावल खाना पूरी तरह से वर्जित है। साल में दो पुत्रदा एकादशी होती हैं। पौष माह मेंऔर श्रावण शुक्ल पक्ष में। संतान प्राप्त हेतु इसका व्रत किया जाता है साथ ही में जिस व्यक्ति का विवाह ना हो रहा हो या जल्दी विवाह योग चाहते हों, तो भी इस का व्रत किया जाता है।

2. षटतिला एकादशी —

षटतिला एकादशी माघ कृष्ण एकादशी को कहते हैं। हरि, विष्णु तथा कृष्ण की आराधना इस दिन होती है। दरिद्रता, दुर्भाग्य दूर करती है। इस दिन तिल का छह प्रकार से उपयोग किया जाता है इसलिए इसे षटतिला एकादशी कहते हैं।

3. जया एकादशी —

माघ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को जया एकादशी कहते हैं। भगवान विष्णु की पूजा तथा विष्णु मंत्रों का 108 बार जाप तुलसी की माला से किया जाता है तो फलदायक होता है। भगवान विष्णु की शालिग्राम के रूप में पूजा की जाती है।
इस दिन यह कार्य वर्जित हैं-
पान ना खाएं, निंदा या आलोचना से बचें, स्त्री साथ वर्जित है।

4. विजया एकादशी–


यह एकादशी फागुन मास के कृष्ण पक्ष को होती है। जैसा कि इसका नाम है, यह शत्रु पर विजय दिलाती है। जब आप भयंकर शत्रुओं से घिरे हों और पराजय सामने दिख रही हो, उस समय विजया एकादशी करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।
कहा जाता है कि प्राचीन समय में बहुत से राजाओं ने विजया एकादशी का व्रत कर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। पूजा में 7 प्रकार के धान्य तथा घट की स्थापना होती है। गेहूं, उड़द, मूंग, चना, जौ, चावल और अरहर बिछाकर उस पर घट रख विष्णु की पूजा की जाती है।

5. आमलकी एकादशी–


फागुन मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी आमलकी एकादशी कहलाती है। भगवान विष्णु के साथ भगवान शिव की पूजा की जाती है। इसे रंगभरी ग्यारस भी कहते हैं। जीवन में सुख संपन्नता प्रदान करने वाली एकादशी है।आंवले के पेड़ का पूजन करें। पेड़ की 27 या साथ 9 या आवाला दान करें।

6. पाप मोचनी एकादशी–


यह चैत्र मास की कृष्ण पक्ष को मनाई जाती है। इस का व्रत करने से मनुष्य के पाप तथा संकटों से छुटकारा मिल जाता है। इस दिन भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा की जाती है।

7. कामदा एकादशी


चैत मास की शुक्ल पक्ष को जो एकादशी आती है कामदा एकादशी कहलाती है। इस एकादशी का व्रत करने से ब्रह्म हत्या पिचासतत्व दोषों का नाश होता है। यह चैत्र मास की प्रतिपदा के बाद पड़ती है और मनुष्य के मनोरथ पूरे करती है, इसका उल्लेख ब्रह्मपुराण में भी है। भगवान विष्णु के साथ कृष्ण की पूजा भी की जाती है।

8. वरुथिनी एकादशी—


वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को वरुथिनी एकादशी कहते हैं। यह सौभाग्य प्रदान करने वाली होती है। कहा जाता है कि 10 सहस्त्र बरस तक तप करने का जो फल प्राप्त होता है वह वरुथिनी एकादशी व्रत करने से ही प्राप्त हो जाता है।

9. मोहिनी एकादशी—


वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मोहिनी एकादशी कहते हैं। मोहिनी एकादशी का व्रत करने से मनुष्य जाल से छूट जाता है तथा मनुष्य के जो पाप हैं उनसे भी उसे छुटकारा प्राप्त हो जाता है। इसलिए मोहिनी एकादशी के व्रत का बहुत महत्व है।

10. अपरा एकादशी —


जेठ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को अपरा एकादशी कहते हैं। इसे अचला एकादशी के नाम से भी जाना जाता है, साथ ही इसे भद्रकाली जल क्रीडा एकादशोभी कहते हैं। इस एकादशी की पूजा में चंदन, श्रीखंड, तुलसीदल, गंगाजल तथा फल का प्रयोग करना आवश्यक है तथा उसी का प्रसाद लगाया जाता है। यह व्रत कष्टों से छुटकारा दिलाता है, सुख मिलता है व धनसंपदा मिलती है।

11. निर्जला एकादशी —


जेठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी कहलाती है। जैसा कि इसके नाम से ही विदित होता है इस दिन बिना जल के व्रत किया जाता है। दान में वस्त्र, छाता, फल भी दान दिए जाते हैं। इसे भीमसेनी एकादशी भी कहते हैं। इसका व्रत दीर्घायु तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिए किया जाता है। भगवान विष्णु को आम या गुलाब शरबत का भोग लगा पीले फूल चढ़ाकर एकादशी का व्रत करते हैं। एक मटके में जल या शरबत भरकर पंखा दान करने का अधिक महत्व है।

12. योगनी एकादशी —


आषाढ़ माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी को योगिनी एकादशी कहते हैं। इस योग योगिनी एकादशी का व्रत का फल 88000 ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर प्राप्त होता है।इसदिन अन्न दान किया जाता है।यह व्रत कल्पतरू के समान होता है।

13. देवशयनी एकादशी—


यह आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहते हैं, इसका विशेष महत्व है । इसे हरिशयनी व पद्मा एकादशी भी कहते हैं। इसी दिन से चतुर्मास का प्रारंभ होता है। विष्णु सहस्त्र नाम तथा पुरुष सूक्त का जाप करना चाहिए। भगवान विष्णु भी 4 माह तक पाताल लोक में निवास करते हैं तथा क्षीरसागर की अनंग शैया पर शयन करते हैं। इस दिन से शुभ कार्यों पर विराम लग जाता है।

14. कामदा एकादशी–


श्रावण मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को कामदा एकादशी कहते हैं। इस एकादशी का व्रत करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। भगवान शिव तथा विष्णु का पूजन इस दिन किया जाता है। इस व्रत को करने का फल अश्वमेघ यज्ञ के समान प्राप्त होता है।

15. श्रावण पुत्रदा एकादशी–


सावन शुक्ल एकादशी का नाम श्रावण पुत्रदा एकादशी है।

16. अजा एकादशी–


भादो महीने की कृष्ण पक्ष की एकादशी को अजा एकादशी कहते हैं। इसे कामिका या अन्य दा के नाम से भी जाना जाता है। इसकी खास बात यह है कि एकादशी के पूरे दिन भगवान विष्णु की मूर्ति के सामने दीपक जलाया जाता है दीपक द्वादशी को हटाए तथा भगवान विष्णु तथा लक्ष्मी की पूजा होती है। यह बात करने से सर्व मनोरथ पूर्ण होते हैं।

17. परिवर्तनी एकादशी—


भाद्रपद की शुक्ल की एकादशी को परिवर्तन एकादशी कहते हैं। इसे जयंती एकादशी भी कहते हैं। इस दिन भगवान विष्णु के वामन रूप की पूजा की जाती है तथा वामन रूप की पूजा करने से तीन लोकों की पूजा करने का फल प्राप्त होता है।

18. इन्दिरा एकादशी–


पित्र पक्ष में पढ़ने वाली एकादशी को इंदिरा एकादशी कहते हैं। इस दिन पितरों के लिए पिंडदान किया जाता है। पिंडदान की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है। भगवान विष्णु को पीले फूल चढ़ाए जाते हैं व उड़द की दाल की खाद सामग्री का प्रसाद लगाया जाता है।

19. पद्मिनी एकादशी–


पुरुषोत्तम मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को पद्मिनी एकादशी कहते हैं। मलमास में आने के कारण इसे पुरुषोत्तम एकादशी के नाम से भी जाना जाता है
मलमास में वैसे भी दान दक्षिणा का महत्व बहुत अधिक होता है।

20. परम एकादशी–


अधिक मास में पढ़ने वाली एकादशी को परमा एकादशी कहते हैं। इस एकादशी को भी सभी प्रकार के दान महत्वपूर्ण होते हैं।

21. पापं-कुशा एकादशी—


अश्विन मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को पाप कुशा एकादशी कहते हैं। भगवान विष्णु के पदम नाम रूप की पूजा की जाती है। इस दिन हाथी को प्रेम रूपी अंकुश से भेदने के कारण रात में भगवान विष्णु की मूर्ति के पास सोना चाहिए। इस दिन मौन रखने का विधान है।

22. रमा एकादशी —


इसे रंभा एकादशी भी कहते हैं। विष्णु तथा माँ लक्ष्मी दोनों की पूजा की जाती है। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को रमा एकादशी कहते हैं। माता लक्ष्मी से संबंधित होने कारण ही इसका नाम रमा एकादशी पड़ा।

23. देवोत्थान एकादशी —


इसे देवउठनी, देव प्रबोधनी तथा हरि प्रबोधिनी एकादशी के नामों से जाना जाता है। इस दिन तुलसी का विवाह शालिग्राम जी के साथ हुआ था। इस एकादशी की खास बात यह है कि इसके बाद ही शादी-ब्याह के मुहूर्त प्रारंभ हो जाते हैं। आदि पुराण के अनुसार यह बुद्धि तथा शांति प्रदाता, संतान दायक एकादशी होती है। भगवान विष्णु चार मास के शयन के बाद आज ही उठते हैं। घर-घर में देवोत्थान की पूजा की जाती है।


24. उत्पन्ना एकादशी —


यह साल की सबसे बड़ी एकादशी है। यह अगहन मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी है। एकादशी का व्रत उत्पन्ना एकादशी से प्रारंभ होता है। जो लोग एकादशी का व्रत रखना चाहते हैं वह इसी एकादशी से प्रारंभ होता है व बीच की एकादशी से प्रारंभ नहीं किया जाता है। एकादशी एक देवी थी जिनका जन्म विष्णु जी से हुआ था अर्थात विष्णु जी से उत्पन्न हुई थी इसलिए इसे उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है।

25. मोक्षदा एकादशी —


मोक्षदा एकादशी के दिन विष्णु भगवान की पूजा के साथ कृष्ण की पूजा भी होती है। भगवान विष्णु की पूजा तुलसी की मंजरी से की जाती है, गीता का पाठ किया जाता है। ऐसा करने से पापों का शमन होता है तथा इस एकादशी का व्रत करने से गंगा स्नान का फल भी प्राप्त होता है।

लेखिका: श्रीमती उषा भरत चतुर्वेदी: भोपाल

श्राद्ध – विस्तृत जानकारी [महत्व, समय, विधि]-

श्राद्ध की महत्ता

हिंदू धर्म में वेदों अनुसार मनुष्य मृत्यु-उपरांत यमलोक में, मृत्युलोक में पुनर्जन्म होने तक वास करता है और यह प्रवास उसके द्वारा किए गए सत्कर्म-दुष्कर्म पर निर्भर करता है। इस प्रवास के समय धर्मानुसार वर्ष में भादों मास में 15 दिन के लिए यमराज मृत आत्मा को अपने बंधन से मुक्त करते हैं और वह आत्मा अपेक्षा करती है कि उसके परिजन उसको अन्न-जल समर्पित करेंगे। यह सब हमारी मान्यताओं व उनके प्रति श्रद्धा-भाव के अंतर्गत वेद पुराण में चर्चित है।

श्राद्ध कब किए जाते हैं?

प्रत्येक वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक पितृपक्ष श्राद्ध किए जाते हैं। इन 15 दिनों में तिथि अनुसार मृत व्यक्ति के श्राद्ध किए जाते हैं।

दूसरा श्राद्ध- जिस दिन वर्ष में व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस दिन भी श्राद्ध किया जाता है।

  1. पिता का श्राद्ध अष्टमी को व माता का नवमी को किया जाता है।
  2. जिन परिजन की अकाल मृत्यु हुई हो यानी दुर्घटना/आत्महत्या द्वारा उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।
  3. साधु-सन्यासी का श्राद्ध द्वादशी के दिन किया जाता है।
  4. जिन पितरों की मृत्यु का दिन याद नहीं उनका श्राद्ध सर्वपितृ अमावस्या को किया जाता है।

श्राद्ध परंपरा अनुसार तीन पीढ़ी तक करने की व्यवस्था दी गई है। बाकी व्यक्ति अपनी श्रद्धा अनुसार जिसका भी श्राद्ध करना चाहे।

श्राद्ध की विधि


ब्रह्मपुराण के अनुसार उचित विधि द्वारा पितरों की तृप्ति हेतु ब्राह्मणों को श्रद्धा पूर्वक दिया गया भोजन श्राद्ध कहलाता है। पिंड रूप में भी पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
ऐसा माना जाता है कि अगर पितृ रुष्ट हो जाएं तो मनुष्य को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। जैसे धन हानि, संतान पक्ष में समस्या आदि। ऐसी भी मान्यता है कि संतानहीन व्यक्ति को पितृपक्ष में श्राद्ध जरूर करना चाहिए।

पुराण अनुसार श्राद्ध प्राप्त करने का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मण को ही है।

श्राद्ध वाले दिन मृत व्यक्ति या स्त्री के अनुसार ब्राह्मण या ब्राह्मणी को आदर सहित उनके पैर धोकर आशीर्वाद प्राप्त कर साफ जगह आसन बिछाकर मृत व्यक्ति के रुचि अनुसार भोजन तैयार करके जिसमें फल, मिठाई सहित एक थाली में चार हिस्से- 1. अग्नि, 2. कौवा, 3. कुत्ता, 4. गायएक थाली में ब्राह्मण हेतु भोजन निकाला जाता है।

तर्पण करते समय दाएं हाथ की अनामिका में कुश धारण कर हाथ में जल, अक्षत, सफेद पुष्प लेकर हम यह अवाह्न करते हैं कि “हे भगवान व वर्तमान व पूर्व जन्म के पितृ देवता! मैं आपको [अपना नाम, गोत्र सहित] लेकर भोजन/जलांजलि अर्पित करता हूँ स्वीकार करें। तथा आप मुझ व मेरे परिवार पर अपना आशीर्वाद प्रदान करें।

इस प्रकार निकाले गए हिस्सों को 1. अग्नि, 2. गाय, 3. कुत्ता व 4. कौवा को समर्पित करके ब्राह्मण हेतु निकली गयी थाली में ब्राह्मण को भोजन कराएं। फिर दक्षिणा देकर विदा करें।

विशेष- ध्यान रहे कि ब्राह्मण-ब्राह्मणी को बाहर तक विदा नहीं करने जाना चाहिए तथा दक्षिणा में एक रुपए का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जैसे 101, 501।

भोजन में निकाले गए अंशों का महत्व

भोजन में निकाले गए अंशों के बारे में ऐसी मान्यता है कि-

  1. अग्नि- ईश्वर का रूप है उसमें समर्पित वस्तु पंचतत्व में विलीन होकर समाप्त हो जाती है।
  2. गाय- के बारे में मान्यता है कि समुद्र मंथन में कामधेनु गाय का अवतरण हुआ था। गाय हमारे लिए पूज्य है और गाय के शरीर के प्रत्येक हिस्से में ईश्वर का वास माना गया है। गाय द्वारा प्रदत्त दूध, दही, मक्खन हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
  3. कुत्ता- कहा जाता है कि धर्मराज युधिष्ठिर के स्वर्ग लोक गमन पर कुत्ता उनके साथ गया था। अतः यही एक ऐसा जानवर है जिसने यमराज को साक्षात देखा है। इसीलिए कुत्ते के रोने को अशुभ माना जाता है।
  4. कौवा- पहली मान्यता यह है कि कौवे की स्वाभाविक मृत्यु कभी भी नहीं होती है। वह जब भी मृत्यु को प्राप्त होता है तो दुर्घटनावश।
    दूसरा कारण पीपल और बरगद के पेड़ का जन्म कौवे द्वारा इनके फल को खाने के उपरांत अपनी बीट [मल] द्वारा ही होता है। इन वृक्षों का कोई भी बीज रोपा नहीं जाता है। उपरोक्त दोनों ही वृक्ष ऑक्सीजन का वृहद स्रोत कहे जाते हैं, ऐसा पौराणिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। भादों मास में मादा कौवा अंडे देती है अतः इनके जीवन संरक्षण हेतु श्राद्ध में इनके लिए हिस्सा निकाले जाने का प्रावधान किया गया है, ऐसी मान्यता मानी जाती है।

तर्पण अथवा जलांजलि

पितृपक्ष में घर के बड़े व्यक्ति अथवा ज्येष्ठ पुत्र द्वारा पितरों को मंत्रोच्चार व विधि द्वारा दिया गया जल, तर्पण/जलांजलि कहलाता है।

तर्पण मृत व्यक्ति या स्त्री के ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र, पति द्वारा दिया जाना माना गया है। परंतु किन्हीं कारणवश उपरोक्त द्वारा यह कार्य नहीं किया जा सकता तो अन्य सदस्य भी कर सकते हैं, क्योंकि यह श्रद्धा का विषय है। पितरों को भोजन समर्पित करने का भाव सर्वोपरि होना चाहिए। इन पर कुतर्कों से बचना चाहिए।

तर्पण हेतु आवश्यक सामग्री

  1. कुश की दो पैंती [अँगूठीनुमा]
  2. शुद्ध जल
  3. गंगाजल
  4. दूध [गाय का हो तो उचित]
  5. जौ
  6. काले तिल
  7. सफेद फूल

पितृपक्ष में तर्पण/जलांजलि देने की विधि

तर्पण घर के किसी खुले स्थान पर दिया जाता है। इसके लिए उस स्थान को साफ कर, पोंछा लगाकर एक बैठने हेतु ऊनी कंबल या चटाई बिछा लेते हैं।

अनामिका उँगली-
हाथ के बीच वाली उँगली [मध्यमा] तथा सबसे छोटी वाली उँगली [कनिष्ठा] के बीच वाली उँगली का नाम अनामिका है। इसी में दोनों हाथों में कुश की पैंती [अँगूठीनुमा] पहनी जाती है।

सबसे पहले नहा-धोकर आसन पर दक्षिण दिशा में मुँह करके दाएं हाथ और बाएं हाथ की अनामिका में कुश की पैंती पहनकर हाथ में शुद्ध जल, फूल, सुपारी, सिक्का [अपना नाम, पिता का नाम, गोत्र लेकर] संकल्प करें “हे भगवान, पूर्व व वर्तमान जन्म के पितृ! मैं आपको जलांजलि/भोजन अर्पित करता हूँ, स्वीकार करें। तथा आप मेरे परिवार पर आशीर्वाद प्रदान करें।”

अब सर्वप्रथम पूर्व दिशा में मुँह करके बैठें, बायाँ पैर घुटने से मोड़कर भूमि पर टिका लें, जनेऊ बाएं कंधे पर हो। अब एक बड़े बर्तन में गंगाजल, दूध, सफेद फूल, शुद्ध जल व अक्षत मिलाकर दोनो हाथों की अंजलि भरकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रत्येक के लिए तीन-तीन बार नाम लेकर यह बोलें।-

तर्पण हेतु मंत्र

“जल तर्पण तृप्तताम्”

जैसे- ब्रह्मा जी के लिए- “जल तर्पण तृप्तताम”
इसी प्रकार विष्णु व महेश के लिए भी इसी प्रकार क्रम दोहराए।

अब उत्तर दिशा में बर्तन को रखकर बैठें। इसमें सनकादिक ऋषि, सप्त ऋषि दोनों के लिए तीन-तीन बार “जल तर्पण तृप्तताम्” बोलकर जलांजलि दें।

अब पश्चिम दिशा में मुँह करके बैठें और बर्तन में जौ डालकर
धर्मराज, चित्रगुप्त, चित्रगुप्ताय तीनों के लिए तीन-तीन बार उक्त मंत्र बोलें।

अब दक्षिण दिशा में मुँह करके बैठें। जनेऊ को बाएँ से दायें कंधे पर कर लें और बर्तन में काले तिल डालकर अंजलि भरकर नाना-नानी, पर बाबा-दादी, बाबा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची, कुटुम्ब व सब परिवारजन सभी के लिए तीन-तीन बार अंजलि में जल भरकर उक्त मंत्र द्वारा जलांजलि दें।

इन चारों दिशाओं में बैठने की मुद्रा, पूर्व दिशा में बैठने की मुद्रा की तरह ही होगी। इस प्रकार तर्पण किए हुए जल को पास में पीपल के वृक्ष के नीचे या किसी नदी, बहते पानी में प्रवाहित किया जा सकता है। इसके बाद पैंती उतारकर हाथ धोकर जनेऊ को अपने यथास्थिति में कर लें [बायें कंधे पर कर लें]।

पितरों की विदा

मतानुसार श्राद्ध के अंतिम दिन [अमावस्या को] रात्रि को पूरा भोजन अर्थात् पूरी-कचोरी, सब्जी, रायता, दूध, मिठाई, फल, पान [लगा हुआ] एवं मृत व्यक्ति का रुचिकर सामान बनाकर रसोई साफ करके स्वच्छ जगह केवल पानी से लीपकर भोजन रख दें। सुबह [दूसरे दिन] इस भोजन को यदि घर में लड़की हो तो ग्रहण कर सकती है। अथवा यह भोजन जो पितरों के लिए रखा गया है गाय को खिला दें।


पितरों की विदा नियमानुसार उनकी देहरी से ही की जाती है, जहाँ उनका श्राद्ध होता आया है। पिता के जितने पुत्र हैं वे सभी अपने पिता का अलग-अलग श्राद्ध कर सकते हैं। परंतु पितरों की विदायी उनके निवास स्थान से ही होगी, ऐसी मान्यता है।

संकलन: सतेन्द्र कुमार चतुर्वेदी, कानपुर

गणेश चतुर्थी – गणपति स्थापना नियम, भोग विधि व विसर्जन

गणेश चतुर्थी

गणेश चतुर्थी हिंदुओं के प्रमुख त्योहारों में से एक है जो सम्पूर्ण भारत में विशेषतः महाराष्ट्र व गुजरात में अत्यंत हर्षोल्लास से मनाया जाता है। भारत में ही नहीं अपितु विश्व के हर कोने में श्रद्धालु गणेश जी का स्वागत व उनकी श्रद्धापूर्वक स्थापना करते हैं, पूजन करते हैं व धूमधाम से उनका विसर्जन करते हैं।

गणपति की शारीरिक संरचना का अर्थ

गणेश शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं। गणेश जी का नाम हिंदू शास्त्र के अनुसार किसी भी कार्य के लिए पहले लेना पूज्य माना गया है। यही कारण है कि यह प्रथम पूज्य हैं।

गणेश को गणपति भी कहा गया है। उनकी शारीरिक संरचना भी विशिष्ट व गहरा अर्थ लिए हुए है। शिवमानस पूजा में श्री गणेश को प्रणव (ॐ) कहा गया है। इस एकाक्षर ब्रह्म में ऊपर वाला भाग गणेश का मस्तक, नीचे वाला भाग उदर, चंद्र बिंदु को लड्डू, औ मात्रा को सूँड़ कहा गया है।

चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक उनकी चार भुजायें हैं। वह लंबोदर हैं, क्योंकि समस्त चराचर सृष्टि उनके उदर में ही विचरण करती है। कान बड़े हैं, कारण उनमें ग्राह शक्ति अधिक है। छोटी पैनी आँखें सूक्ष्म-तीक्ष्ण दृष्टि दर्शाती हैं। उनकी सूँड़ उनके महाबुद्धित्व की प्रतीक है। 

शास्त्रानुसार गणेश जी का विवाह भी हुआ था। इनके रिद्धि व सिद्धि नाम की दो पत्नियां थीं, दो पुत्र थे शुभ और लाभ।अक्सर गणेश जी के आसपास शुभ व लाभ दिखाए जाते हैं। गणेश पूजा सिद्धियाँ प्राप्त करवाती हैं, लेकिन इनकी भक्ति मोक्ष प्राप्ति हेतु नहीं है।

गणपति जी के प्रमुख नाम

इन के 12 नाम प्रमुख हैं –

  1. सुमुख
  2. एकदंत
  3. कपिल
  4. गजकर्णक
  5. लम्बोदर
  6. विकट
  7. विघ्ननाशक
  8. विनायक
  9. धूम्रकेतु
  10. गणाध्यक्ष
  11. भालचन्द्र
  12. गजानन

यह नाम गणपति की आराधना का विधान माने गए हैं।

इनके भाई कार्तिकेय, बहन अशोकसुंदरी बताई गई हैं। प्रिय भोग इनका मोदक ही है। प्रिय पुष्प इनका लाल रंग का है चाहें गुलाब या गुड़हल का हो। इन की सबसे प्रिय वस्तु दुर्वा(दूब) है, शमीपत्र भी है। गणेश जल तत्व के अधिपति हैं। इनके प्रमुख अस्त्र पाश व अंकुश हैं। गणेश जी का प्रिय वाहन मूषक है।

ज्योतिष शास्त्रानुसार गणेश को केतु के रूप में जाना जाता है। “केतू” एक छाया ग्रह है जो “राहु” नामक छाया ग्रह से हमेशा विरोध करता है।


बिना विरोध के “ज्ञान” नहीं आता और बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं है।

गणेश सर्वत्र देखते हैं, वह साधन के रूप में प्रत्येक कण में विद्यमान हैं। कहने का तात्पर्य है कि “साधन ही गणेश हैं”। वे अकेले शंकर-पार्वती के पुत्र व देवता ही नहीं हैं बल्कि जीवन में प्रयोग आने वाले सभी साधन “गणेश” ही हैं। समस्त कल्याणकारी कार्य संपन्न करने वाले केवल एक ही देव हैं, “श्री गणेश” अन्य कोई नहीं, यह शास्त्रानुसार सिद्ध है, जो ऋषियों को सूत जी ने कही जो नैमिषारण्य में कथाकार थे।

भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को गणेश चतुर्थी मनाते हैं। इसी दिन श्री गणेश का जन्म हुआ था। इस दिन विधि-विधान से विघ्नहर्ता श्री गणेश जी की पूजा की जाती है।

गणपति स्थापना के नियम

श्री गणेश स्थापना के कुछ नियम हैं। जब घर में गणपति की स्थापना करनी हो तो हमें कुछ नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए।

  1. सर्वप्रथम गणपति जी की मूर्ति 1 दिन पहले लेने जाते समय हाथ में दूब, सुपारी व पैसा लें तथा सर्वप्रथम दुकानदार को रोली, चावल से तिलक करें और उसके हाथ में दूब, सुपारी व पैसा रख दें तथा मूर्ति को बुक करवा कर कि “हम कल ले जाएंगे”, उसकी ही दुकान पर रख कर घर आ जायें।
  2. गणपति को सदैव मुँह ढक कर ही दूसरे दिन घर लाएँ। घर पर आकर दरवाजे पर जो मुख्य द्वार है वहाँ चौक पूरकर (लगाकर), चौकी रखकर, कच्चा दूध व शक्कर डालकर गणपति जी को बैठाकर उनके पैर पर जल छिड़कें (पैर पखारें), पूजा अर्चना कर लें, आरती व भोग लगाकर तत्पश्चात् मंदिर या घर में जहाँ उनकी स्थापना की तैयारी निश्चित कर रखी है, वहाँ उन्हें लेकर आ जाएँ। यह ध्यान रखें कि गणपति जी का मुख घर के अंदर की तरफ हो, बाहर की तरफ नहीं।

गणपति का भोग लगाने की विधि

दिन में तीन बार सुबह, दोपहर व शाम तीनों समय विधिवत् भोग अदल-बदल कर लगाएँ।
उदाहरण के रूप में जैसे-

  1. सुबह- सुबह के समय सर्वप्रथम हम विधि-विधान से गणपति जी की पूजा-अर्चना करने के पश्चात भोग में गणपति के प्रिय लड्डुओं का भोग लगाएँ।
  2. दोपहर- दोपहर में गणपति जी की पूजा अर्चना के पश्चात मेवायुक्त खीर का भोग लगाएँ।
  3. शाम- साँयकाल, पुनः पूजा-प्रार्थना करने के बाद गणपति जी को अतिप्रिय मोदक का भोग लगा गणपति जी को प्रसन्न करें।

इस प्रकार सम्भव हो तो नित नए व्यंजनों का भोग लगाएँ। यहाँ ये कहना उचित होगा कि जितने भी दिन गणपति जी को स्थापित करें, उनकी पूजा अर्चना के पश्चात विभिन्न व्यंजनों का भोग लगा प्रभु को प्रसन्न कर आशीर्वाद प्राप्त करें।

गणेश जी को लगाए जाने वाले विभिन्न भोग

गणपति विसर्जन

विसर्जन के समय भी विधिवत पूजन करें, आरती करें, भोग लगाएँ, साथ में गणपति के भोजन, पानी की भी व्यवस्था करें। घर से भूखा-प्यासा देवता विदा नहीं होना चाहिए। विसर्जन के पहले पूजा विधि भी हो सके तो उस स्थान पर भी करें, तत्पश्चात् विसर्जन करें।

घर आकर कुछ भजन गाएँ। वैसे तो रोज़ ही भजन गाने चाहिए। एक बात का ध्यान और रखें कि जहाँ से गणपति जी की मूर्ति लायें, उस दुकानदार को श्रद्धापूर्वक ऊपर से रुपए अवश्य दें।

विशेष- गणेश जी कोई ढाई दिन रखता है, कोई पाँच दिन, कोई सात दिन व कोई दस दिन। अधिकांश डोल ग्यारस या अनंत चतुर्दशी को विसर्जित किया जाता है पर जितने समय रखना हो सर्वप्रथम स्थापना के समय आप उनसे अवश्य प्रार्थना स्वरूप बता दें।

संकलन एवं लेखन: रति चौबे, नागपुर

रूद्राभिषेक

इस ब्रम्हाण्ड में जिनकी पूजा-अर्चना व यज्ञ, गंधर्व, किन्नर व देवता भी करते हैं, वो देवों के देव महादेव हैं। आप ही रूद्र रूप में प्रत्येक देवता में वास करते हैं। इनका स्वरूप ही इनकी दिव्यता दर्शाता है।

आपकी पूजा-विधि इतनी सरल है कि कहीं भी आसानी से की जा सकती है।आप किसी पात्र से जल द्वारा उपलब्ध फूल ,पत्री के अभिषेक से प्रसन्न हो जाते हैं। इसीलिए आप को भोले बाबा के नाम से भी संबोधित किया जाता है।

शिव की आराधना व अभिषेक यदि किसी कामना के लिए किया जाए तो निम्नलिखित पदार्थों से अभिषेक करें, कार्य अवश्य पूर्ण होता है। ऐसा विश्वास किया जाता है।

किन चीजों से करें अभिषेक?



प्राप्त फल

  1. गंगाजल मिले जल से अभिषेक-– ज्वर दूर होता है।
  2. दूध से अभिषेक– लक्ष्मी की कृपा व संतान प्राप्ति
  3. दही से अभिषेक– भवन, वाहन का सुख
  4. गन्ने के रस से अभिषेक- लक्ष्मी जी की कृपा होती है।
  5. शहद व घी से अभिषेक- धन वृद्धि होती है।
  6. इत्र मिले जल से अभिषेक- बीमारी दूर होती है।
  7. घी की धारा से अभिषेक सहस्त्र नाम का जप करते हुए अभिषेक- वंश वृद्धि होती है।
  8. तीर्थ के जल से अभिषेक- मोक्ष प्राप्ति होती है।
  9. दुग्ध मिले जल से अभिषेक- प्रमेय रोग का नाश होता है।
  10. शक्कर मिले जल से अभिषेक- जड़ बुद्धि वाला भी विद्वान होता है।
  11. सरसों के तेल से अभिषेक- शत्रु पराजित होता है।
  12. शहद से अभिषेक- तपेदिक रोग का नाश होता है।
  13. गौ दुग्ध (गाय का दूध) व शहद से अभिषेक- आरोग्यता प्राप्त होती है।

मनुष्य विभिन्न समस्याओं व रोगों से परेशान रहता है। माना जाता है कि यदि शिव का रूद्राभिषेक घर या मन्दिर के प्रांगण में करा दिया जाये तो जीवन मे अनुकूलता आती है। रूद्राभिषेक कब और कैसे करायें? आगे इसका पूर्ण विवरण दिया गया है।

कहा जाता है कि ईश्वर की प्रार्थना कहीं भी, कभी भी की जा सकती है। परंतु ऐसी मान्यता है कि यदि विशेष समय पर पूजा-अर्चना की जाए तो उसका विशिष्ट लाभ मिलता है।

रूद्राभिषेक की महत्ता


कब करें रुद्राभिषेक?

रूद्राभिषेक की महत्ता श्रावण मास, प्रदोष, सोमवार को विशेष है। बाकी समय में रूद्राभिषेक किया जाये तो इसकी गणना कर लेनी चाहिए।

जिस दिन हम रूद्राभिषेक का आयोजन कर रहे है, उस दिन शिव का वास कहाँ है, यह जानना आवश्यक है।

इसे उदाहरण से समझा जा सकता है कि हम यदि निद्रा या अप्रसन्न मन से हैं तो ऐसे समय में किसी प्रिय का आगमन भी उचित नही लगता है।
इसी प्रकार रूद्राभिषेक का आयोजन करते समय शिव के वास की गणना करना आवश्यक है।

विशेष– यदि आप ज्योतिर्लिग- क्षेत्र में हैं, तो शिव के वास का विचार करने की आवश्यकता नहीं है।


देव ऋषि नारद जी की पद्धति से गणनानुसार

रूद्राभिषेक- शुक्ल पक्ष की द्वितीय (2), पंचमी (5), षष्ठी (6), नवमी (9), द्वादशी (12), त्रयोदशी(13 ) शिव-वास अनुकूल एवम् अतिशीघ्र मनोवांछित फल प्रदान करता है।

कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा (15 + 1), चतुर्थी (15 + 4), पंचमी (15 + 5), अष्टमी (15 + 8) , एकादशी (15 + 11) , द्वादशी (15 + 12) , अमावस्या (15 + 15) को रूद्राभिषेक शुभ फलदायक माना जाता है।

कैसे करें गणना?

जिस दिन रूद्राभिषेक करना है, उस दिन की तात्कालिक तिथि की संख्या को दो गुना कर के गुणन फल में पाँच जोड़ने पर आए फल में सात का भाग देने पर शेष बचे अंक से शिव के वास का विचार करते हैं।


ध्यान रखें शिव वास की गणना में तिथियों के क्रमांक का विचार शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (1) , तिथि से पूर्णिमा (15) तक के क्रमांक 1 से 15 होंगे। तदोपरांत कृष्ण पक्ष की तिथि का क्रम आने से कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक के क्रमांक सोलह(16) से तीस (30) तक होंगे।

उदाहरण-1
शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी(13) को शिव वास की स्थिति जानना है।

नियम

13 ✖️ 2 ➡️ 26 ➕ 5 ➡️ 31 ➗ 7 ➡️ 3 शेष

1) शेष फल = 1 – भोले नाथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्न मुद्रा में बैठे है। अति फल दायक भोग , काम मोक्ष दोनों प्राप्त होंगे।।
2) शेष फल = 2 – भोलेनाथ माता पार्वती के साथ अपने भक्तों के हितार्थ चिंतन कर रहे है।सुख संपत्ति का वरदान प्राप्त होगा।
3) शेष फल = 3 – शिवजी नंदी पर आरूण हो कर लोक कल्याण हेतु भ्रमण पर है। मनोकामना पूर्ण होती है।
4) शेष फल = 4 – महादेव देवताओं के साथ सभा में हैं। ऐसे में ध्यान भंग होता है। शोक संताप प्राप्त होगा।
5) शेष फल = 5 – भोलेनाथ भक्तों के पापों का भ्रमण करते हुए उनका पातक रूपी विष पी रहे हैं। अनुष्ठान पीड़ा दायक है।।
6) शेष फल = 6 – भोलेनाथ ताण्डव नृत्य करते हुए क्रीड़ारत है। ऐसी अवस्था में आनंद में विघ्न उपस्थित करने के कारण साधक को परिवार सहित कष्ट भोगना पड़ता है।
7) शेष फल = 0 – भगवान भोलेनाथ के महाकाल के रूप में शमशान में साधनारत होने के कारण साधना को खण्डित करना महाविपत्ति कारक एवं मरणतुल्य कष्टप्रद होगा।

उदाहरण-2
कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि से गणना


अमावस्या 30 ✖️ 2 ➡️ 60 ➕ 5 ➡️ 65 ➗ 7 ➡️ 2 शेष

फल अनुकूल है। इसी प्रकार बाकी तिथियों की गणना करके ऊपर दिए शेष फल के अनुसार रूद्राभिषेक का आयोजन करें।

विशेष –

  1. मान्यता है कि सोमवार को बेल पत्र नही तोड़ना चाहिए।
  2. बेल पत्र को माता पार्वती ने अपने स्तन से शिव को प्रसन्न करने के लिए उत्पन्न किया था।
  3. पार्थवेशर (मिट्टी के द्वारा बनाये गए शिवलिंग) के रूद्राभिषेक के समय ध्यान रखना चाहिए कि ये अभिषेक के द्वारा खण्डित न हों।

अभिषेक प्रिय है

  1. शिव को – शृंगी से (जल या दुग्ध मिश्रित जल से)
  2. विष्णु को – शंख से (जल या दुग्ध मिश्रित जल से)
  3. श्री गणेश को – ताम्र पात्र से (जल से)
  4. जगदम्बिका को – स्वर्ण की कोई भी वस्तु डालकर, उस जल से (जल या दुग्ध मिश्रित जल से)

नव ग्रहों के प्रतिनिधि वृक्ष

  1. बृहस्पति का पीपल ,
  2. शुक्र का गूलर ,
  3. शनि का शमी ,
  4. चंद्रमा का ढाक,
  5. मंगल का खैर ,
  6. बुद्ध का अपामार्ग,
  7. राहू का दूब,
  8. केतु का कुश। ।।

संकलन: सतेन्द्र कुमार चतुर्वेदी, कानपुर


हर-छठ मैया की पूजा में कही जाने वाली कहानियाँ

हरछठ मैया की पूजा करते समय निम्न कहानियाँ कहने की परम्परा है।

पहली कहानी

एक राजा थे। उनके सात रानी, सात बहुएँ व सात बेटे थे। उन्होंने ताल (तालाब) खुदवाया। ताल में पानी नहीं आया। उन्होंने बहुत प्रयत्न करके देखे, कि इसमें पानी क्यों नहीं आया। उन्होंने पंच से पूछी तो वे बोले कि इसमें नाती की बलि चढ़ाओ तो पानी आएगा। सास बड़ी बहू के पास गई कि तुमसे एक चीज माँग रहे हैं। वह बोली बोलिए, तो सास ने कहा कि अपना लड़का हमें दे दो तो उसकी बलि चढ़ा दें। तो बहू ने इंकार कर दिया कि लड़का खिला-पिला पाल-पोस कर बड़ा किया है, यह कैसे दे दें।

इस तरह दूसरी, तीसरी छः बहुओं ने इसी तरह कहा कि सब करेंगे पर लड़का नहीं देंगे। उन्होंने सोची कि सातवीं के पास जाएं कि न जायें। इसी असमंजस में सातवीं बहू के पास गईं। सातवीं बहु से बोली कि कुछ माँगने आए हैं। बहू बोली सब आपका है जो कुछ चाहे मांग लें। सास बोली अपना लड़का दे दो उसकी बलि दें तो ताल में पानी आ जाए।

बहू ने आँखों में आँसू भर हँसकर लड़का दे दिया। अब ताल में इतना पानी आ गया कि वो भर गया। तब भादों की हर-छठ आयी। महिलाएँ ताल पर नहाने गईं। सब जा रही थीं तो ससुर सातवीं बहू से बोले कि तुम भी बेटा चली जाओ। बहू ने सोचा हमारे लड़का तो है नहीं, पर ससुर कह रहे हैं तो उनके आदेश से ताल नहाने चली जाऊँ। सब महिलाएँ ताल में नहा रही थीं तो एक छोटा सा बालक खेलते हुए गोदी में आ गया। सबने कहा कि यह किसका लड़का है। सब ने इनकार किया तो बहू ने देखा कि लड़का उसका था। उसने बालक को आँचल में उठा लिया। घर आकर हर-छठ मैया की पूजा बहुत श्रद्धा के साथ की।

दूसरी कहानी

एक बहू थी। उसके एक बालक था। वह हर भादों माह की छठ को हर छठ मैया का व्रत करती थी। एक दिन वह अपने बालक को दूध पिला कर व सुलाकर काम से बाहर गई। वह पड़ोस की महिला से बता गई कि इसका (मेरे बालक का) ध्यान रखना। दुर्भाग्यवश उस महिला के कोई संतान नहीं थी। उस महिला के मन में पाप आ गया और उसने बालक की बलि चढ़ाकर भट्टी में उस बालक को डाल दिया और ऊपर से बंद कर दिया।
इधर महिला जब लौटी तो अपने बालक को ना पाकर विलाप करने लगी। हर जगह अपने बालक को ढूंढने लगी। तभी किसी अन्य से उस पड़ोसी महिला की करतूत का पता चला तो वह पूरे गाँव व पंचों के साथ उस महिला के घर गई।

बहु ने रोते हुए व हर-छठ मैया को याद करते हुए उस भट्टी का ढक्कन खोला तो उसके अचरज का ठिकाना ना रहा। उसका बालक यथावत भट्टी में हंसता हुआ खेल रहा था। झट से बहू ने अपने बालक को आँचल में भर लिया व दुलार करने लगी।

वह तुरंत ही घर गई और पूरे श्रद्धा भाव से हर-छठ मैया की पूजा-अर्चना की। विनती की कि हे हर-छठ मैया, जिस तरह तुमने मेरे बालक की रक्षा की, उसी तरह सबके बालकों की रक्षा करना।

हरछठ मैया से प्रार्थना

हरछठ मैया का पूजन करने के उपरांत उपरोक्त कथानुसार “हरछठ मैया” से श्रद्धापूर्वक प्रार्थना की जाती है कि-

“ हे हरछठ मैया ! जिस प्रकार आपने इन बालकों की रक्षा की है, उसी प्रकार सदैव हमारे बालकों व सभी के बालकों की रक्षा करना। व सभी पर कृपा बनाए रखना।”

– कुमकुम चतुर्वेदी: एक कोशिश

अर्धनारीश्वर की उपासना तो किन्नरों की उपेक्षा क्यों ?

हमारा समाज कुछ संकीर्ण विचार-धाराओं को लेकर चलता है, परंतु अब काफी हद तक संकीर्ण सोच बदलती जा रही है।

किन्नर समाज- पूर्णरूपेण हमारा समाज अपना नहीं सका है यह एक बहुत ही संवेदनशील विषय व सोच है।

यद्यपि 15 अप्रैल 2014 में भारत सरकार ने इनको थर्ड जेंडर की मान्यता दी है, किन्नर समाज की शबनम मौसी जब पहली विधायक बनीँ तब निश्चित ही किन्नर समाज में ख़ुशी की लहर आई होगी। रामायण और महाभारत के पन्ने जब हम पलटते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि हजारों वर्ष पूर्व भी यह किन्नर समाज था, आज भी है और भविष्य में भी इसका अस्तित्व रहेगा। किन्नर हमारे समाज का अंग है इसे नकारा नहीं जा सकता। किसी भी सूरत में यह भी इंसान हैं बस, इनमें स्त्री-पुरुष दोनों के लक्षण पाए जाते हैं।

किन्नर समाज की उत्पत्ति-

किन्नर हिमालय के क्षेत्रों में बसने वाली एक मनुष्य जाति का नाम है। पुराणों में कादम्बिरी जैसी साहित्यिक ग्रंथों में भी इनके क्रियाकलापों का वर्णन मिलता है। हिमालय का पवित्र शिखर कैलाश किन्नरों का प्रधान निवास स्थान था, जहां किन्नर शिव की सेवा करते थे। उन्हें देवताओं का गायक व भक्त समझा जाता था। नृत्य गायन में यह प्रवीण होते थे।

सर्वप्रथम किन्नर की उत्पत्ति कैसे हुई? क्यों हुई? यह सत्यता पर आधारित एक तथ्यपूर्ण प्रसंग है, ऐसा हमारे शास्त्र बताते हैं।

हजारों वर्ष बीत गए “प्रजापति कदम” नाम के राजा हुआ करते थे। इनके “इल” नाम का अत्यंत धार्मिक पुत्र था। एक बार वह अपने सैनिकों के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गया परंतु एक पशु का शिकार कर उसका मन नहीं भरा। वह शिकार करते-करते उस पर्वत पर पहुंच जाता है जहां भगवान शिव अपनी अर्धांगिनी पार्वती के साथ विहार कर रहे होते हैं। पार्वती किसी बात पर रुठ जाती हैं, तब शिव उन को प्रसन्न करने के लिए अचानक अपना रूप बदल देते हैं। आधे स्त्री और आधे पुरुष के रूप में हो जाते हैं।इस प्रकार व अर्धनारीश्वर बन पार्वती को प्रसन्न करने लगते हैं।

जैसे ही शिव ने अपना रूप बदला वैसे ही “इल” स्त्री बन गए और इनके सैनिक भी स्त्री रूप में परिवर्तित हो गए। वृक्ष, पशु-पक्षी सभी स्त्रीलिंग में परिवर्तित हो गए। शिव बस पार्वती को प्रसन्न करने में मदहोश थे।शिव के कारण यह परिवर्तन हुआ। बेचारे इल शिव के पास गए व बहुत ही प्रार्थना की, किंतु शिव ने उन्हें पुरुषत्व का वर नहीं दिया।

तब इल भयभीत हो गए और पार्वती के पास जाकर बहुत ही अनुनय विनय करने लगे। तो पार्वती ने प्रसन्न होकर कहा कि इल, क्योंकि शिव ने अर्धनारीश्वर का रूप लिया है, उनकी इच्छा है इसलिए मैं तुमको पूर्ण पुरुष तो नहीं बना सकती। हाँ, एक महीने तुम पुरुष रहोगे और 1 महीने स्त्री, पर दोनों ही समय तुम्हें अपने रूप याद नहीं रहेंगे। यही कारण है कि शिव का अर्धनारीश्वर रूप किन्नरों का माना जाता है।

वाल्मीकि रामायण के उत्तराखंड में इसका वर्णन है।

अर्धनारीश्वर शिव की उपासना, किन्नरों की अवहेलना व किन्नरों के आराध्य देव “अरावण”-

अब प्रश्न यह उठता है कि अर्धनारीश्वर शिव की उपासना की जाती है पर किन्नरों की अवहेलना क्यों?

यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है। महाभारत का एक प्रसंग है। द्रौपदी से अर्जुन एक शर्त पर हार जाते हैं तो द्रौपदी उन्हें 1 वर्ष का वनवास देती हैं। अर्जुन उस समय नागलोक चले जाते हैं। तब वहां “उलुपी” से उनका परिचय होता है और वह उनसे प्रेम में बदल जाता है। इनके एक पुत्र होता है जिसका नाम “अरावन” होता है। जिस समय महाभारत युद्ध होता है उस युद्ध में महाकाली को बलि देने के लिए एक राजकुमार की जरूरत होती है। तब अरावन अपने को अर्पित करने के लिए तैयार हो जाते हैं, परंतु अरावन बिना शादी के मरना नहीं चाहता थे। और कोई भी राजा अपनी कन्या को एक दिन को विवाह करवाकर विधवा नहीं बनाना चाहता था। तब श्री कृष्ण मोहिनी रूप धारण करते हैं और अरावण से शादी करते हैं। अरावण महाकाली को अपना सिर अर्पित करते हैं। तभी से किन्नरों के आराध्य देव “अरावण” हैं।


आज भी प्राचीन तिल्लूपुरम् तमिलनाडु में अरावण पूजे जाते हैं। राजस्थान में जिस प्रकार से खाटूश्याम की मान्यता है उतनी ही अरावण की भी है। उलुपी के यह पुत्र हैं। अर्जुन के जाने के बाद वह (उलुपी) अपने को विधवा मानती थी।

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार यदि देखें तो कहा जाता है कि शुक्र, कन और शनि कुंडली के आठवें भाग में हों और जहां चंद्र-दृष्टि नहीं पड़ती है, वहाँ किन्नर संतान पैदा होती है।

किन्नरों को श्रीराम का वरदान-

महाभारत में शिखंडी की भी किन्नर थे। रामायण काल में जिस समय राम वन को जाते हैं तब सभी उनको विदा कर लौट आते हैं। तब एक समुदाय खड़ा रहता है। पूछने पर वह बताते हैं कि हम ना तो नर हैं और न ही नारी, आप के भक्त हैं। तब राम उन्हें वरदान देते हैं कि किन्नर का आशीर्वाद व श्राप अब कभी भी खाली नहीं जाएगा और वह शुक्ता का वरदान है। यह जहाँ भी जाते हैं वहाँ नकारात्मक जो शक्ति होती है उससे मुक्ति मिलती है, ये इनकी विशेषता है।

इस प्रकार किन्नर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर द्वारा ही बनाए गए हैं। फिर क्यों इनकी उपेक्षा होती है? शताब्दियों से इनका समुदाय चल रहा है। ब्रह्मा की छाया में उत्पन्न हुए हैं।

आज भी भोपाल में यदि वर्षा नहीं होती है तो वहां किन्नरों का उत्सव होता है। कलश पूजा उनके द्वारा होने पर वर्षा होती है। भुजरिया के आसपास यह उत्सव बहुत ही भव्य रुप से मनाया जाता है।

मेरे विचार से जो किन्नर हैं वह उपेक्षा के पात्र नहीं है।

मेरे विचार-

समाज से अंत में मेरा यही कहना है कि किन्नर अपनी मर्जी से पैदा नहीं होते। इनमें भी भावनाएं, संवेदनाएं हैं। माता-पिता को अन्य औलाद जैसी प्यारी होती है, वैसे ही इनको भी प्यार देना चाहिए। क्योंकि पारिवारिक उपेक्षा व्यक्ति को अकेलेपन का शिकार बना देती है। भले ही समाज का दबाव परिवार पर हो तो भी परिवार को इसका विरोध करना चाहिए। परिवार ही तिरस्कार करेगा तो निश्चय ही इनमें विरोधाभास की भावना आएगी और अप्रवर्तिक भावना भी इनमें जागेगी। इनके साथ परिवार को और समाज को दोगला व्यवहार नहीं करना चाहिए।

यदि यह ऑपरेशन द्वारा ठीक हो सकते हैं तो प्रयास करना चाहिए कि यह ठीक हो जाएं। क्योंकि शादी जीवन के लिए इतनी आवश्यक नहीं है। प्यार इनको मिलता रहे तो यह भी सब कार्य कर सकते हैं जो अन्य करते हैं। सरकार ने इन्हें थर्ड जेंडर की मान्यता दे ही दी है तो हम और आप कौन होते हैं इनका विरोध करने वाले। माँ की कोख में से हुए हैं ऊपर से टपके नहीं है। जब अर्धनारीश्वर जिन्होंने इनकी उत्पत्ति की है, उनकी उपासना हम करते हैं और उनकी उपेक्षा नहीं करते तब इनकी उपेक्षा क्यों?

यह एक विचारणीय प्रश्न जो हमारे सामने बार-बार आता है। मुझे लगता है मेरे विचारों से आप लोग सहमत होंगे और हमको इस विषय के ऊपर काफी सोच-विचार करना चाहिए।

लेखिका: श्रीमती रति चतुर्वेदी (पत्नी- स्वर्गीय दिनेश चतुर्वेदी, एडवोकेट), नागपुर

हमारी कुछ प्रथाएं और उनकी तर्कसम्मतता : आज के संदर्भ में

स्वच्छता के जो मापदण्ड मैने अपने बचपन में देखे,उनको क्या नाम दूँ, समझ नहीं पाती हूँ… छुआछूत, कुरीतियां या रहने का उचित ढंग … स्वच्छता हम लोगों के रहन-सहन में रची- बसी थी । सभी परिवारों के रहन-सहन का तौर – तरीका वही था। सभी स्वच्छता को अपनाकर अपनी सुरक्षा करते थे। किसी को छूना नहीं, यहाँ तक कि स्नान के बाद अपने स्वयं के बच्चों से भी दूरी बनाकर रहना कि कहीं कोई छू न ले लेना वरना पुनः स्नान करना होगा। स्वच्छता के विषय में एक उक्ति है,

यत्र शुचिता च स्वच्छतां, तत्र
तिष्ठष्यारोग्य वैभवन्च सुखम ।

आशय यह है कि पवित्रता और शुचिता के होने पर आरोग्य, सम्पदा और सुख की सिद्धि होती है।

मैंने अपने आस पास के सभी परिवारों को इसी बात का अनुसरण करते हुए देखा परंतु कालांतर में जैसे जैसे पाश्चात्य सभ्यता ने अपनी जड़ें मज़बूत की, इस प्रथा का घोर विरोध होने लगा। अपने ही बच्चे इस से घृणा करने लगे, इसे कुप्रथा कहने लगे क्योंकि वह अंग्रेजों के तौर-तरीकों को अच्छा समझने लगे। वह ये समझने को तैयार नहीं थे कि ये सारे नियम आडंबर नहीं थे, बल्कि वैज्ञानिकता से परिपूर्ण थे और पौराणिक नियम थे।

घर के बुजुर्गों का कहना था कि भोजन ब्रह्म के समान है, अतः उसे पकाने तथा ग्रहण करने के लिए एक नियत व स्वच्छ स्थान होना चाहिए। भोजन तैयार होने पर सर्वप्रथम एक थाली भगवान के समक्ष ले जाकर, उस पर जल छिड़क कर भोग लगाने की प्रथा थी और कुछ परिवार आज भी इस प्रथा का अनुसरण कर रहे हैं। अपने जूते- चप्पल बाहर निकाल कर, हाथ- पैर अच्छी तरह से धोकर, चटाई पर बैठकर भोजन को ग्रहण किया जाता था ।पर इस नियम का भी मज़ाक उड़ने लगा और अपने सारे नियम तोड़ने पर आमादा लोग पाश्चात्य देशों से आये बुफे सिस्टम को अपनाने लगे, जिसमें भोजन मेज़ पर रखा रहता है, जो चाहे, वह लेकर खा ले और हाथों को टिशू पेपर से पोंछ ले । हाथ धोने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। जबकि शास्त्रों के अनुसार जल ही शरीर को शुद्ध करता है।

सनातन धर्म में शिशु के जन्म के पश्चात प्रसूति गृह से मां और बच्चे को निकलने की मनाही होती है।

प्रसूति गृह में निरंतर अंगीठी जलाकर रखी जाती थी और उसमें गंधक, कपूर, गुग्गुल, नीम की पत्ती का धुआं किया जाता था। मां को कोई भी गृहकार्य करने की अनुमति नहीं होती थी। उसे भोजनालय में प्रवेश चालीस दिन के पश्चात ही दिया जाता है। तभी सूर्य – पूजा कराई जाती थी। असल में, यह परहेज़ इसलिए किया जाता था क्यों कि इस समय बच्चे तथा माँ, दोनों की ही रोग प्रतिरोधक क्षमता (immunity) कमजोर होती है बाहर से संक्रमण का भय रहता है तो बचाव का यही उपाय है। हमारे परिवारों में रजस्वला स्त्री को कम से कम चार दिन तक गृहकार्य से दूर रखने की प्रथा थी। यह कोई रूढ़िवाद के अन्तर्गत नहीं किया जाता था बल्कि इन दिनों में हुए रक्तस्राव के कारण महिलाओं को क्षीणता अनुभव होती है तथा उनका शरीर किसी भी प्रकार की बीमारी को शीघ्र पकड़ सकता है। ऐसे में, उनके तथा परिवार के अन्य सदस्यों के बचाव हेतु स्त्री को अलग रहने की सलाह दी जाती थी।इसके अतिरिक्त इन दिनों स्वच्छता का अत्यधिक ध्यान रखना होता है। इसी कारणवश स्त्री को पूजा- पाठ संबंधित कार्यों तथा भोजन पकाने के कार्य से अलग रखा जाता था।

बचपन में मैने यह भी देखा कि खसरा अथवा चिकन पौक्स जैसे संक्रमण वाले रोगों से बचाव के लिए मेरी माँ छोटे बच्चों की कलाई में एक महीन सफेद कपड़े में दो लोंग व कपूर बाँध देती थीं।एक कटोरी में पानी में कपूर रखा जाता था जो हमे घर से बाहर जाने के पूर्व हाथों और चेहरे पर लगाने को कहा जाता था। कपूर में एंटी – वाइरल गुण होते हैं जो बीमारी को पास नहीं आने देते।

यह पूर्णतया वैज्ञानिक तथ्य है न कि रूढ़िवादी विचारधारा।

और अब कोरोना नामक एक भयानक वाइरस से फैलने वाली बीमारी ने विश्व में हाहाकार मचा दिया।इससे संक्रमित रोगी हजारों लाखों की संख्या में मरने लगे। इससे बचाव के लिए प्रत्येक व्यक्ति, चिकित्सक, विभिन्न स्वास्थ्य संस्थायें यहाँ तक कि हमारे प्रधान मंत्री भी एक ही सलाह देने लगे…. एक दूसरे से दूरी बनाए रखें,बाहर पहने हुए जूते – चप्पल घर के अंदर न लायें, घर में लायी जाने वाली प्रत्येक वस्तु को पहले धो लें, किसी भी वस्तु या मनुष्य को स्पर्श करने के पश्चात अपने हाथ साबुन से धोए।मांसाहारी भोजन न करें… इत्यादि, इत्यादि।

अपनी तथा अपने परिवार की सुरक्षा के लिए अब उन्हीं नियमों का पालन करना उचित और श्रेयस्कर जान पड़ने लगा जिनको कुरीतियां कह कर हम ठुकरा रहे थे।सरकार ने यहाँ तक कह दिया कि जो इन नियमों का पालन नहीं करेगा उसको जुर्माना देना पड़ेगा। तो अब हम वही नियम एक रोग के भय से अपनाने लगे।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह बीमारी एक न एक दिन दुनिया से चली ही जायेगी पर शायद हम लोगों को हमारे शास्त्रों व बुजुर्गों द्वारा पढ़ाए गए नियमों पर दोबारा चलना सिखा कर….. या फिर इस रोग के जाते ही हम पुनः अपने पुराने ढर्रे पर आ जायेंगे, यह तो समय ही बतायेगा।

लेखिका: श्रीमती उर्मिला मिश्रा, पत्नी स्वर्गीय श्री रोहित कुमार मिश्रा, मैनपुरी /लखनऊ

चरण स्पर्श की महत्ता तथा नियम

चरण स्पर्श का महत्व-

चरण स्पर्श करना हमारे देश की एक अत्यंत प्राचीन परम्परा है।हमारे पूर्वजों तथा विद्वानों की एक विशेष उपलब्धि यह है कि उन्होंने वर्षो पूर्व अनेकों परंपराओं के पीछे छिपे रहस्य को समझ लिया था, वह भी तब जब विज्ञान ने इतनी उन्नति नहीं की थी। हमारे ऋषि-मुनियों ने ऐसे सूक्ष्म रहस्यों को समझ कर उनके महत्व को हमें ऐसे समझाया कि वो हमारे संस्कार बनते चले गए।

स्वयं से आयु में बड़े लोगों, अपने गुरुजनों तथा माता-पिता के चरण स्पर्श करना ऐसा ही एक संस्कार है। व्यक्ति स्वयं से आयु में अथवा रिश्ते में बड़े लोगों के चरण-स्पर्श करता है और बदले में बड़े बुज़ुर्ग के मुँह से उसके लिए आशीर्वाद, सदवचन निकलते हैं।

चरण स्पर्श के प्रभाव व लाभ-

यह एक सिद्ध तथ्य है कि कोई व्यक्ति कितना भी कलुषित स्वभाव का हो, चरण-स्पर्श करने पर उसके मुख से सदवचन ही निकलते हैं। चरण-स्पर्श का वैज्ञानिक कारण यह है कि मानव शरीर स्वयं एक चुंबक के समान है। चुंबक विज्ञान के अनुसार मानव शरीर में चुंबकीय तत्व मौजूद हैं। यदि मनुष्य खड़ा हो तो उसके सिर और धड़ को उत्तरी ध्रुव तथा पैरों को दक्षिणी ध्रुव माना जाता है और शरीर में सकारात्मक ऊर्जा सिर से पैर की ओर प्रवाहित होती है। दक्षिणी ध्रुव अर्थात पैरों पर इस ऊर्जा की मात्रा एकत्रित हो जाती है। पैरों से हाथों द्वारा इसी ऊर्जा को ग्रहण करने की प्रक्रिया को हम चरण स्पर्श कहते हैं। जब हम किसी के पैर छूते हैं तो उसके आभा मंडल की कुछ सकारात्मक ऊर्जा हमारे शरीर में आ जाती है।

चरण स्पर्श का मनोवैज्ञानिक कारण है कि यह परम्परा व्यक्ति के अहंकार को कम करके एक पारस्परिक प्रेम, आदर और सम्मान के वातावरण को जन्म देती है। जिनका हम चरण- स्पर्श करते हैं उन पर तुरंत इसका मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है तथा उनके हृदय से प्रेम और आशीर्वाद की भावनाएं निकलती हैं जो हमें फलीभूत होती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि बड़े बुजुर्गों को नियमित प्रणाम करने से आयु, विद्या, यश तथा बल की वृद्धि होती है।

चरण स्पर्श से जुड़े कुछ तथ्य-

चरण-स्पर्श से संबंधित कुछ पौराणिक जानकारी भी है। हम सभी जानते हैं कि महाभारत के युद्ध में अर्जुन को अपने ही गुरु द्रोणाचार्य के विरुद्ध युद्ध करना पड़ा था। इस परिस्थिति में भी उसने सर्वप्रथम एक तीर अपने गुरु के चरणों में छोड़ कर प्रतीकात्मक रूप से उन्हें चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया।

महाभारत का ही एक अन्य प्रसंग है कि यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि एक व्यक्ति महान व शक्तिशाली कैसे बन सकता है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया – “यदि कोई अपने माता – पिता, गुरुजनों तथा अपने बुजुर्गों के नियमित तथा समर्पित भाव से, आदर सहित चरण-स्पर्श करे तो ऐसा व्यक्ति निश्चित रूप जीवन में सफल होता है।

चरण स्पर्श के नियम-

माना जाता है कि सभी प्राणी ईश्वर का रूप हैं, सभी वंदनीय हैं परंतु शास्त्रों में चरण स्पर्श करने के लिए कुछ नियम वर्णित हैं–

  1. चरण स्पर्श उसी व्यक्ति को करें जो उसके योग्य हो। सदाचारी, सच्चरित्र, सद्गुणी तथा श्रद्धेय हो।
  2. पाखंडी, पतित, व्यभिचारी, कृतघ्न व्यक्ति के चरण स्पर्श न करें ।
  3. चरण स्पर्श करते समय घुटने स्पर्श न करें। यह त्रुटिपूर्ण माना जाता है।
  4. एक हाथ से नहीं, दोनों हाथों से चरण स्पर्श करें।
  5. रजस्वला तथा प्रसूतिका स्त्री के चरण स्पर्श न करें।
  6. शाष्टांग प्रणाम केवल अपने इष्ट तथा गुरु को करें ।
  7. स्त्रियाँ शाष्टांग होकर किसी को प्रणाम न करें।
  8. मन्त्रोच्चारण करते हुए ब्राह्मण के चरण स्पर्श न करें।
  9. भोजन करते समय चरण स्पर्श न करें।
  10. प्रमाद से चरण स्पर्श न करें।

चरण स्पर्श कैसे करें-

चरण स्पर्श करते समय घुटने नहीं छूने चाहिए क्योंकि कहा जाता है कि इसमें दानवों का वास होता है। बल्कि चरण स्पर्श में हमेशा दोनो पैर के अंगूठे का स्पर्श करें, जिससे उस व्यक्ति के गुण, ओज व सदाचार आप में आ जायें।

अंत में, मैं यही निवेदन करती हूँ कि आइये, हम सब चरण-स्पर्श के असीम और अतुलनीय लाभों को ध्यान में रखते हुए इस संस्कार का पालन करें तथा अपने बड़े बुजुर्गों से मिलने वाली सकारात्मक ऊर्जा व आशीष प्राप्त करते रहें जो कि जीवन में कवच की भाँति हमारी रक्षा करते हैं।

लेखिका- श्रीमती उर्मिला मिश्रा, पत्नी स्वर्गीय श्री रोहित कुमार मिश्रा, मैनपुरी /लखनऊ