श्राद्ध की महत्ता
हिंदू धर्म में वेदों अनुसार मनुष्य मृत्यु-उपरांत यमलोक में, मृत्युलोक में पुनर्जन्म होने तक वास करता है और यह प्रवास उसके द्वारा किए गए सत्कर्म-दुष्कर्म पर निर्भर करता है। इस प्रवास के समय धर्मानुसार वर्ष में भादों मास में 15 दिन के लिए यमराज मृत आत्मा को अपने बंधन से मुक्त करते हैं और वह आत्मा अपेक्षा करती है कि उसके परिजन उसको अन्न-जल समर्पित करेंगे। यह सब हमारी मान्यताओं व उनके प्रति श्रद्धा-भाव के अंतर्गत वेद पुराण में चर्चित है।
श्राद्ध कब किए जाते हैं?
प्रत्येक वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक पितृपक्ष श्राद्ध किए जाते हैं। इन 15 दिनों में तिथि अनुसार मृत व्यक्ति के श्राद्ध किए जाते हैं।
दूसरा श्राद्ध- जिस दिन वर्ष में व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस दिन भी श्राद्ध किया जाता है।
- पिता का श्राद्ध अष्टमी को व माता का नवमी को किया जाता है।
- जिन परिजन की अकाल मृत्यु हुई हो यानी दुर्घटना/आत्महत्या द्वारा उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।
- साधु-सन्यासी का श्राद्ध द्वादशी के दिन किया जाता है।
- जिन पितरों की मृत्यु का दिन याद नहीं उनका श्राद्ध सर्वपितृ अमावस्या को किया जाता है।
श्राद्ध परंपरा अनुसार तीन पीढ़ी तक करने की व्यवस्था दी गई है। बाकी व्यक्ति अपनी श्रद्धा अनुसार जिसका भी श्राद्ध करना चाहे।
श्राद्ध की विधि
ब्रह्मपुराण के अनुसार उचित विधि द्वारा पितरों की तृप्ति हेतु ब्राह्मणों को श्रद्धा पूर्वक दिया गया भोजन श्राद्ध कहलाता है। पिंड रूप में भी पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
ऐसा माना जाता है कि अगर पितृ रुष्ट हो जाएं तो मनुष्य को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। जैसे धन हानि, संतान पक्ष में समस्या आदि। ऐसी भी मान्यता है कि संतानहीन व्यक्ति को पितृपक्ष में श्राद्ध जरूर करना चाहिए।
पुराण अनुसार श्राद्ध प्राप्त करने का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मण को ही है।
श्राद्ध वाले दिन मृत व्यक्ति या स्त्री के अनुसार ब्राह्मण या ब्राह्मणी को आदर सहित उनके पैर धोकर आशीर्वाद प्राप्त कर साफ जगह आसन बिछाकर मृत व्यक्ति के रुचि अनुसार भोजन तैयार करके जिसमें फल, मिठाई सहित एक थाली में चार हिस्से- 1. अग्नि, 2. कौवा, 3. कुत्ता, 4. गाय व एक थाली में ब्राह्मण हेतु भोजन निकाला जाता है।
तर्पण करते समय दाएं हाथ की अनामिका में कुश धारण कर हाथ में जल, अक्षत, सफेद पुष्प लेकर हम यह अवाह्न करते हैं कि “हे भगवान व वर्तमान व पूर्व जन्म के पितृ देवता! मैं आपको [अपना नाम, गोत्र सहित] लेकर भोजन/जलांजलि अर्पित करता हूँ स्वीकार करें। तथा आप मुझ व मेरे परिवार पर अपना आशीर्वाद प्रदान करें।
इस प्रकार निकाले गए हिस्सों को 1. अग्नि, 2. गाय, 3. कुत्ता व 4. कौवा को समर्पित करके ब्राह्मण हेतु निकली गयी थाली में ब्राह्मण को भोजन कराएं। फिर दक्षिणा देकर विदा करें।
विशेष- ध्यान रहे कि ब्राह्मण-ब्राह्मणी को बाहर तक विदा नहीं करने जाना चाहिए तथा दक्षिणा में एक रुपए का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जैसे 101, 501।
भोजन में निकाले गए अंशों का महत्व
भोजन में निकाले गए अंशों के बारे में ऐसी मान्यता है कि-
- अग्नि- ईश्वर का रूप है उसमें समर्पित वस्तु पंचतत्व में विलीन होकर समाप्त हो जाती है।
- गाय- के बारे में मान्यता है कि समुद्र मंथन में कामधेनु गाय का अवतरण हुआ था। गाय हमारे लिए पूज्य है और गाय के शरीर के प्रत्येक हिस्से में ईश्वर का वास माना गया है। गाय द्वारा प्रदत्त दूध, दही, मक्खन हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
- कुत्ता- कहा जाता है कि धर्मराज युधिष्ठिर के स्वर्ग लोक गमन पर कुत्ता उनके साथ गया था। अतः यही एक ऐसा जानवर है जिसने यमराज को साक्षात देखा है। इसीलिए कुत्ते के रोने को अशुभ माना जाता है।
- कौवा- पहली मान्यता यह है कि कौवे की स्वाभाविक मृत्यु कभी भी नहीं होती है। वह जब भी मृत्यु को प्राप्त होता है तो दुर्घटनावश।
दूसरा कारण पीपल और बरगद के पेड़ का जन्म कौवे द्वारा इनके फल को खाने के उपरांत अपनी बीट [मल] द्वारा ही होता है। इन वृक्षों का कोई भी बीज रोपा नहीं जाता है। उपरोक्त दोनों ही वृक्ष ऑक्सीजन का वृहद स्रोत कहे जाते हैं, ऐसा पौराणिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। भादों मास में मादा कौवा अंडे देती है अतः इनके जीवन संरक्षण हेतु श्राद्ध में इनके लिए हिस्सा निकाले जाने का प्रावधान किया गया है, ऐसी मान्यता मानी जाती है।
तर्पण अथवा जलांजलि
पितृपक्ष में घर के बड़े व्यक्ति अथवा ज्येष्ठ पुत्र द्वारा पितरों को मंत्रोच्चार व विधि द्वारा दिया गया जल, तर्पण/जलांजलि कहलाता है।
तर्पण मृत व्यक्ति या स्त्री के ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र, पति द्वारा दिया जाना माना गया है। परंतु किन्हीं कारणवश उपरोक्त द्वारा यह कार्य नहीं किया जा सकता तो अन्य सदस्य भी कर सकते हैं, क्योंकि यह श्रद्धा का विषय है। पितरों को भोजन समर्पित करने का भाव सर्वोपरि होना चाहिए। इन पर कुतर्कों से बचना चाहिए।
तर्पण हेतु आवश्यक सामग्री
- कुश की दो पैंती [अँगूठीनुमा]
- शुद्ध जल
- गंगाजल
- दूध [गाय का हो तो उचित]
- जौ
- काले तिल
- सफेद फूल
पितृपक्ष में तर्पण/जलांजलि देने की विधि
तर्पण घर के किसी खुले स्थान पर दिया जाता है। इसके लिए उस स्थान को साफ कर, पोंछा लगाकर एक बैठने हेतु ऊनी कंबल या चटाई बिछा लेते हैं।
अनामिका उँगली-
हाथ के बीच वाली उँगली [मध्यमा] तथा सबसे छोटी वाली उँगली [कनिष्ठा] के बीच वाली उँगली का नाम अनामिका है। इसी में दोनों हाथों में कुश की पैंती [अँगूठीनुमा] पहनी जाती है।
सबसे पहले नहा-धोकर आसन पर दक्षिण दिशा में मुँह करके दाएं हाथ और बाएं हाथ की अनामिका में कुश की पैंती पहनकर हाथ में शुद्ध जल, फूल, सुपारी, सिक्का [अपना नाम, पिता का नाम, गोत्र लेकर] संकल्प करें “हे भगवान, पूर्व व वर्तमान जन्म के पितृ! मैं आपको जलांजलि/भोजन अर्पित करता हूँ, स्वीकार करें। तथा आप मेरे परिवार पर आशीर्वाद प्रदान करें।”
अब सर्वप्रथम पूर्व दिशा में मुँह करके बैठें, बायाँ पैर घुटने से मोड़कर भूमि पर टिका लें, जनेऊ बाएं कंधे पर हो। अब एक बड़े बर्तन में गंगाजल, दूध, सफेद फूल, शुद्ध जल व अक्षत मिलाकर दोनो हाथों की अंजलि भरकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रत्येक के लिए तीन-तीन बार नाम लेकर यह बोलें।-
तर्पण हेतु मंत्र
“जल तर्पण तृप्तताम्”
जैसे- ब्रह्मा जी के लिए- “जल तर्पण तृप्तताम”
इसी प्रकार विष्णु व महेश के लिए भी इसी प्रकार क्रम दोहराए।
अब उत्तर दिशा में बर्तन को रखकर बैठें। इसमें सनकादिक ऋषि, सप्त ऋषि दोनों के लिए तीन-तीन बार “जल तर्पण तृप्तताम्” बोलकर जलांजलि दें।
अब पश्चिम दिशा में मुँह करके बैठें और बर्तन में जौ डालकर
धर्मराज, चित्रगुप्त, चित्रगुप्ताय तीनों के लिए तीन-तीन बार उक्त मंत्र बोलें।
अब दक्षिण दिशा में मुँह करके बैठें। जनेऊ को बाएँ से दायें कंधे पर कर लें और बर्तन में काले तिल डालकर अंजलि भरकर नाना-नानी, पर बाबा-दादी, बाबा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची, कुटुम्ब व सब परिवारजन सभी के लिए तीन-तीन बार अंजलि में जल भरकर उक्त मंत्र द्वारा जलांजलि दें।
इन चारों दिशाओं में बैठने की मुद्रा, पूर्व दिशा में बैठने की मुद्रा की तरह ही होगी। इस प्रकार तर्पण किए हुए जल को पास में पीपल के वृक्ष के नीचे या किसी नदी, बहते पानी में प्रवाहित किया जा सकता है। इसके बाद पैंती उतारकर हाथ धोकर जनेऊ को अपने यथास्थिति में कर लें [बायें कंधे पर कर लें]।
पितरों की विदा
मतानुसार श्राद्ध के अंतिम दिन [अमावस्या को] रात्रि को पूरा भोजन अर्थात् पूरी-कचोरी, सब्जी, रायता, दूध, मिठाई, फल, पान [लगा हुआ] एवं मृत व्यक्ति का रुचिकर सामान बनाकर रसोई साफ करके स्वच्छ जगह केवल पानी से लीपकर भोजन रख दें। सुबह [दूसरे दिन] इस भोजन को यदि घर में लड़की हो तो ग्रहण कर सकती है। अथवा यह भोजन जो पितरों के लिए रखा गया है गाय को खिला दें।
पितरों की विदा नियमानुसार उनकी देहरी से ही की जाती है, जहाँ उनका श्राद्ध होता आया है। पिता के जितने पुत्र हैं वे सभी अपने पिता का अलग-अलग श्राद्ध कर सकते हैं। परंतु पितरों की विदायी उनके निवास स्थान से ही होगी, ऐसी मान्यता है।
संकलन: सतेन्द्र कुमार चतुर्वेदी, कानपुर