हमारा समाज कुछ संकीर्ण विचार-धाराओं को लेकर चलता है, परंतु अब काफी हद तक संकीर्ण सोच बदलती जा रही है।
किन्नर समाज- पूर्णरूपेण हमारा समाज अपना नहीं सका है यह एक बहुत ही संवेदनशील विषय व सोच है।
यद्यपि 15 अप्रैल 2014 में भारत सरकार ने इनको थर्ड जेंडर की मान्यता दी है, किन्नर समाज की शबनम मौसी जब पहली विधायक बनीँ तब निश्चित ही किन्नर समाज में ख़ुशी की लहर आई होगी। रामायण और महाभारत के पन्ने जब हम पलटते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि हजारों वर्ष पूर्व भी यह किन्नर समाज था, आज भी है और भविष्य में भी इसका अस्तित्व रहेगा। किन्नर हमारे समाज का अंग है इसे नकारा नहीं जा सकता। किसी भी सूरत में यह भी इंसान हैं बस, इनमें स्त्री-पुरुष दोनों के लक्षण पाए जाते हैं।
किन्नर समाज की उत्पत्ति-
किन्नर हिमालय के क्षेत्रों में बसने वाली एक मनुष्य जाति का नाम है। पुराणों में कादम्बिरी जैसी साहित्यिक ग्रंथों में भी इनके क्रियाकलापों का वर्णन मिलता है। हिमालय का पवित्र शिखर कैलाश किन्नरों का प्रधान निवास स्थान था, जहां किन्नर शिव की सेवा करते थे। उन्हें देवताओं का गायक व भक्त समझा जाता था। नृत्य गायन में यह प्रवीण होते थे।
सर्वप्रथम किन्नर की उत्पत्ति कैसे हुई? क्यों हुई? यह सत्यता पर आधारित एक तथ्यपूर्ण प्रसंग है, ऐसा हमारे शास्त्र बताते हैं।
हजारों वर्ष बीत गए “प्रजापति कदम” नाम के राजा हुआ करते थे। इनके “इल” नाम का अत्यंत धार्मिक पुत्र था। एक बार वह अपने सैनिकों के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गया परंतु एक पशु का शिकार कर उसका मन नहीं भरा। वह शिकार करते-करते उस पर्वत पर पहुंच जाता है जहां भगवान शिव अपनी अर्धांगिनी पार्वती के साथ विहार कर रहे होते हैं। पार्वती किसी बात पर रुठ जाती हैं, तब शिव उन को प्रसन्न करने के लिए अचानक अपना रूप बदल देते हैं। आधे स्त्री और आधे पुरुष के रूप में हो जाते हैं।इस प्रकार व अर्धनारीश्वर बन पार्वती को प्रसन्न करने लगते हैं।
जैसे ही शिव ने अपना रूप बदला वैसे ही “इल” स्त्री बन गए और इनके सैनिक भी स्त्री रूप में परिवर्तित हो गए। वृक्ष, पशु-पक्षी सभी स्त्रीलिंग में परिवर्तित हो गए। शिव बस पार्वती को प्रसन्न करने में मदहोश थे।शिव के कारण यह परिवर्तन हुआ। बेचारे इल शिव के पास गए व बहुत ही प्रार्थना की, किंतु शिव ने उन्हें पुरुषत्व का वर नहीं दिया।
तब इल भयभीत हो गए और पार्वती के पास जाकर बहुत ही अनुनय विनय करने लगे। तो पार्वती ने प्रसन्न होकर कहा कि इल, क्योंकि शिव ने अर्धनारीश्वर का रूप लिया है, उनकी इच्छा है इसलिए मैं तुमको पूर्ण पुरुष तो नहीं बना सकती। हाँ, एक महीने तुम पुरुष रहोगे और 1 महीने स्त्री, पर दोनों ही समय तुम्हें अपने रूप याद नहीं रहेंगे। यही कारण है कि शिव का अर्धनारीश्वर रूप किन्नरों का माना जाता है।
वाल्मीकि रामायण के उत्तराखंड में इसका वर्णन है।
अर्धनारीश्वर शिव की उपासना, किन्नरों की अवहेलना व किन्नरों के आराध्य देव “अरावण”-
अब प्रश्न यह उठता है कि अर्धनारीश्वर शिव की उपासना की जाती है पर किन्नरों की अवहेलना क्यों?
यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है। महाभारत का एक प्रसंग है। द्रौपदी से अर्जुन एक शर्त पर हार जाते हैं तो द्रौपदी उन्हें 1 वर्ष का वनवास देती हैं। अर्जुन उस समय नागलोक चले जाते हैं। तब वहां “उलुपी” से उनका परिचय होता है और वह उनसे प्रेम में बदल जाता है। इनके एक पुत्र होता है जिसका नाम “अरावन” होता है। जिस समय महाभारत युद्ध होता है उस युद्ध में महाकाली को बलि देने के लिए एक राजकुमार की जरूरत होती है। तब अरावन अपने को अर्पित करने के लिए तैयार हो जाते हैं, परंतु अरावन बिना शादी के मरना नहीं चाहता थे। और कोई भी राजा अपनी कन्या को एक दिन को विवाह करवाकर विधवा नहीं बनाना चाहता था। तब श्री कृष्ण मोहिनी रूप धारण करते हैं और अरावण से शादी करते हैं। अरावण महाकाली को अपना सिर अर्पित करते हैं। तभी से किन्नरों के आराध्य देव “अरावण” हैं।
आज भी प्राचीन तिल्लूपुरम् तमिलनाडु में अरावण पूजे जाते हैं। राजस्थान में जिस प्रकार से खाटूश्याम की मान्यता है उतनी ही अरावण की भी है। उलुपी के यह पुत्र हैं। अर्जुन के जाने के बाद वह (उलुपी) अपने को विधवा मानती थी।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार यदि देखें तो कहा जाता है कि शुक्र, कन और शनि कुंडली के आठवें भाग में हों और जहां चंद्र-दृष्टि नहीं पड़ती है, वहाँ किन्नर संतान पैदा होती है।
किन्नरों को श्रीराम का वरदान-
महाभारत में शिखंडी की भी किन्नर थे। रामायण काल में जिस समय राम वन को जाते हैं तब सभी उनको विदा कर लौट आते हैं। तब एक समुदाय खड़ा रहता है। पूछने पर वह बताते हैं कि हम ना तो नर हैं और न ही नारी, आप के भक्त हैं। तब राम उन्हें वरदान देते हैं कि किन्नर का आशीर्वाद व श्राप अब कभी भी खाली नहीं जाएगा और वह शुक्ता का वरदान है। यह जहाँ भी जाते हैं वहाँ नकारात्मक जो शक्ति होती है उससे मुक्ति मिलती है, ये इनकी विशेषता है।
इस प्रकार किन्नर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर द्वारा ही बनाए गए हैं। फिर क्यों इनकी उपेक्षा होती है? शताब्दियों से इनका समुदाय चल रहा है। ब्रह्मा की छाया में उत्पन्न हुए हैं।
आज भी भोपाल में यदि वर्षा नहीं होती है तो वहां किन्नरों का उत्सव होता है। कलश पूजा उनके द्वारा होने पर वर्षा होती है। भुजरिया के आसपास यह उत्सव बहुत ही भव्य रुप से मनाया जाता है।
मेरे विचार से जो किन्नर हैं वह उपेक्षा के पात्र नहीं है।
मेरे विचार-
समाज से अंत में मेरा यही कहना है कि किन्नर अपनी मर्जी से पैदा नहीं होते। इनमें भी भावनाएं, संवेदनाएं हैं। माता-पिता को अन्य औलाद जैसी प्यारी होती है, वैसे ही इनको भी प्यार देना चाहिए। क्योंकि पारिवारिक उपेक्षा व्यक्ति को अकेलेपन का शिकार बना देती है। भले ही समाज का दबाव परिवार पर हो तो भी परिवार को इसका विरोध करना चाहिए। परिवार ही तिरस्कार करेगा तो निश्चय ही इनमें विरोधाभास की भावना आएगी और अप्रवर्तिक भावना भी इनमें जागेगी। इनके साथ परिवार को और समाज को दोगला व्यवहार नहीं करना चाहिए।
यदि यह ऑपरेशन द्वारा ठीक हो सकते हैं तो प्रयास करना चाहिए कि यह ठीक हो जाएं। क्योंकि शादी जीवन के लिए इतनी आवश्यक नहीं है। प्यार इनको मिलता रहे तो यह भी सब कार्य कर सकते हैं जो अन्य करते हैं। सरकार ने इन्हें थर्ड जेंडर की मान्यता दे ही दी है तो हम और आप कौन होते हैं इनका विरोध करने वाले। माँ की कोख में से हुए हैं ऊपर से टपके नहीं है। जब अर्धनारीश्वर जिन्होंने इनकी उत्पत्ति की है, उनकी उपासना हम करते हैं और उनकी उपेक्षा नहीं करते तब इनकी उपेक्षा क्यों?
यह एक विचारणीय प्रश्न जो हमारे सामने बार-बार आता है। मुझे लगता है मेरे विचारों से आप लोग सहमत होंगे और हमको इस विषय के ऊपर काफी सोच-विचार करना चाहिए।
लेखिका: श्रीमती रति चतुर्वेदी (पत्नी- स्वर्गीय दिनेश चतुर्वेदी, एडवोकेट), नागपुर