हमारी कुछ प्रथाएं और उनकी तर्कसम्मतता : आज के संदर्भ में

स्वच्छता के जो मापदण्ड मैने अपने बचपन में देखे,उनको क्या नाम दूँ, समझ नहीं पाती हूँ… छुआछूत, कुरीतियां या रहने का उचित ढंग … स्वच्छता हम लोगों के रहन-सहन में रची- बसी थी । सभी परिवारों के रहन-सहन का तौर – तरीका वही था। सभी स्वच्छता को अपनाकर अपनी सुरक्षा करते थे। किसी को छूना नहीं, यहाँ तक कि स्नान के बाद अपने स्वयं के बच्चों से भी दूरी बनाकर रहना कि कहीं कोई छू न ले लेना वरना पुनः स्नान करना होगा। स्वच्छता के विषय में एक उक्ति है,

यत्र शुचिता च स्वच्छतां, तत्र
तिष्ठष्यारोग्य वैभवन्च सुखम ।

आशय यह है कि पवित्रता और शुचिता के होने पर आरोग्य, सम्पदा और सुख की सिद्धि होती है।

मैंने अपने आस पास के सभी परिवारों को इसी बात का अनुसरण करते हुए देखा परंतु कालांतर में जैसे जैसे पाश्चात्य सभ्यता ने अपनी जड़ें मज़बूत की, इस प्रथा का घोर विरोध होने लगा। अपने ही बच्चे इस से घृणा करने लगे, इसे कुप्रथा कहने लगे क्योंकि वह अंग्रेजों के तौर-तरीकों को अच्छा समझने लगे। वह ये समझने को तैयार नहीं थे कि ये सारे नियम आडंबर नहीं थे, बल्कि वैज्ञानिकता से परिपूर्ण थे और पौराणिक नियम थे।

घर के बुजुर्गों का कहना था कि भोजन ब्रह्म के समान है, अतः उसे पकाने तथा ग्रहण करने के लिए एक नियत व स्वच्छ स्थान होना चाहिए। भोजन तैयार होने पर सर्वप्रथम एक थाली भगवान के समक्ष ले जाकर, उस पर जल छिड़क कर भोग लगाने की प्रथा थी और कुछ परिवार आज भी इस प्रथा का अनुसरण कर रहे हैं। अपने जूते- चप्पल बाहर निकाल कर, हाथ- पैर अच्छी तरह से धोकर, चटाई पर बैठकर भोजन को ग्रहण किया जाता था ।पर इस नियम का भी मज़ाक उड़ने लगा और अपने सारे नियम तोड़ने पर आमादा लोग पाश्चात्य देशों से आये बुफे सिस्टम को अपनाने लगे, जिसमें भोजन मेज़ पर रखा रहता है, जो चाहे, वह लेकर खा ले और हाथों को टिशू पेपर से पोंछ ले । हाथ धोने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। जबकि शास्त्रों के अनुसार जल ही शरीर को शुद्ध करता है।

सनातन धर्म में शिशु के जन्म के पश्चात प्रसूति गृह से मां और बच्चे को निकलने की मनाही होती है।

प्रसूति गृह में निरंतर अंगीठी जलाकर रखी जाती थी और उसमें गंधक, कपूर, गुग्गुल, नीम की पत्ती का धुआं किया जाता था। मां को कोई भी गृहकार्य करने की अनुमति नहीं होती थी। उसे भोजनालय में प्रवेश चालीस दिन के पश्चात ही दिया जाता है। तभी सूर्य – पूजा कराई जाती थी। असल में, यह परहेज़ इसलिए किया जाता था क्यों कि इस समय बच्चे तथा माँ, दोनों की ही रोग प्रतिरोधक क्षमता (immunity) कमजोर होती है बाहर से संक्रमण का भय रहता है तो बचाव का यही उपाय है। हमारे परिवारों में रजस्वला स्त्री को कम से कम चार दिन तक गृहकार्य से दूर रखने की प्रथा थी। यह कोई रूढ़िवाद के अन्तर्गत नहीं किया जाता था बल्कि इन दिनों में हुए रक्तस्राव के कारण महिलाओं को क्षीणता अनुभव होती है तथा उनका शरीर किसी भी प्रकार की बीमारी को शीघ्र पकड़ सकता है। ऐसे में, उनके तथा परिवार के अन्य सदस्यों के बचाव हेतु स्त्री को अलग रहने की सलाह दी जाती थी।इसके अतिरिक्त इन दिनों स्वच्छता का अत्यधिक ध्यान रखना होता है। इसी कारणवश स्त्री को पूजा- पाठ संबंधित कार्यों तथा भोजन पकाने के कार्य से अलग रखा जाता था।

बचपन में मैने यह भी देखा कि खसरा अथवा चिकन पौक्स जैसे संक्रमण वाले रोगों से बचाव के लिए मेरी माँ छोटे बच्चों की कलाई में एक महीन सफेद कपड़े में दो लोंग व कपूर बाँध देती थीं।एक कटोरी में पानी में कपूर रखा जाता था जो हमे घर से बाहर जाने के पूर्व हाथों और चेहरे पर लगाने को कहा जाता था। कपूर में एंटी – वाइरल गुण होते हैं जो बीमारी को पास नहीं आने देते।

यह पूर्णतया वैज्ञानिक तथ्य है न कि रूढ़िवादी विचारधारा।

और अब कोरोना नामक एक भयानक वाइरस से फैलने वाली बीमारी ने विश्व में हाहाकार मचा दिया।इससे संक्रमित रोगी हजारों लाखों की संख्या में मरने लगे। इससे बचाव के लिए प्रत्येक व्यक्ति, चिकित्सक, विभिन्न स्वास्थ्य संस्थायें यहाँ तक कि हमारे प्रधान मंत्री भी एक ही सलाह देने लगे…. एक दूसरे से दूरी बनाए रखें,बाहर पहने हुए जूते – चप्पल घर के अंदर न लायें, घर में लायी जाने वाली प्रत्येक वस्तु को पहले धो लें, किसी भी वस्तु या मनुष्य को स्पर्श करने के पश्चात अपने हाथ साबुन से धोए।मांसाहारी भोजन न करें… इत्यादि, इत्यादि।

अपनी तथा अपने परिवार की सुरक्षा के लिए अब उन्हीं नियमों का पालन करना उचित और श्रेयस्कर जान पड़ने लगा जिनको कुरीतियां कह कर हम ठुकरा रहे थे।सरकार ने यहाँ तक कह दिया कि जो इन नियमों का पालन नहीं करेगा उसको जुर्माना देना पड़ेगा। तो अब हम वही नियम एक रोग के भय से अपनाने लगे।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह बीमारी एक न एक दिन दुनिया से चली ही जायेगी पर शायद हम लोगों को हमारे शास्त्रों व बुजुर्गों द्वारा पढ़ाए गए नियमों पर दोबारा चलना सिखा कर….. या फिर इस रोग के जाते ही हम पुनः अपने पुराने ढर्रे पर आ जायेंगे, यह तो समय ही बतायेगा।

लेखिका: श्रीमती उर्मिला मिश्रा, पत्नी स्वर्गीय श्री रोहित कुमार मिश्रा, मैनपुरी /लखनऊ

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